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________________ 85 पं० सत्यनारायण कविरत्न परम पुण्यमय प्रकृति छटा यह बिधि बिथुराई । जग सुर मुनिनर गजु जासु जानत सुघराई ।। जिह प्रभावबस नितनूतन जलवर शोभाधरि । सफल काम अभिराम सघन धनश्याम आपु हरि ॥ श्रीपति पदपंकज रज परसत जो पुनीत अति । आइ जहाँ आनन्द करति अनुभव सहृदय मति ।। जुगल चरन अरविन्द ध्यान मकरन्द पान हित । मुनि मन मुदित मिलिन्द निरन्तर बिरमत जहँ नित ॥ तह सुचि सरल सुभाव रुचिर गुनगन के रासी। भोरे भारे वसत नेह बिकमत ब्रजवासी ।। जिनके उच्च उदार भाव-गिरिसो जग आसा । जनमी तारनि-तरनि कलिन्दिनि यह ब्रजभासा ।। जासु सरस निरमल जगजीवन जीवन माही । लखियत उज्ज्वल सूर चद की नित परछाही ।। जिन प्रकास सो और प्रकासित सुन्दर लहरी । नित नवल रसभरी मनहरी बिलसत गहरी ॥ जिह आश्रय लहि कलिमलहर तुलसी सौरभ जस। मजु मधुर मृदु सरस सुगम सुचि हरिजन सरबस ॥ केशव' अरु मतिराम बिहारी देव अनूपम । हरिश्चन्द्र से जासु कूल कुसुमित रसालदुम ।। अष्टछाप अनुपम कदम्ब अघ-ओक-निकन्दन । मुकुलित प्रेमाकुलित सुखद सुरभित जगबन्दन । तुरत सकल भयहरनि आर्य जागृति जयसानी। जन मन निज बस करनि लसति पिक भूषन बानी । बिबिध रग रञ्जित मनरजन सुखमा आकर । सुचि सुगंधि के सदम खिले अगनित पदमाकर ॥
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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