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हृदय-तरङ्ग
८७ तजि तजि निज प्रफुलितपनौ, बिरह-बिथित अकुलात । जड हू है चेतन मनौ, दीन मलीन लखात
एक माधौ बिना॥" "भ्रमर दूत" के विषय मे श्रीयुत मुकुटधर पाण्डेय ने जो सम्मति भेजी थी वह भी पढने योग्य है । आपने लिखा था:
"रचना मधुर है । यह व्रजभाषा का पहला ही काव्याश है जिसमे देश कालोपयोगी सामयिक भाव प्रदर्शित हुए है-विशेषता यह है कि प्राचीन विषय को लेकर । यथार्थ मे कविवर सत्यनारायण व्रजभाषा मे सामयिकता लानेके प्रयत्न मे शुरू से हो रहे है । भाव मे ही नही, उनके पद्यो के विषय और वर्णनशैली मे भी सामयिकता पाई जाती है । 'भ्रमरदूत मे उनका यह यत्न सम्पूर्ण सफल होता, यदि वह इतने शीघ्र लोकान्तरित न हो जाते। इसमे यशोदा ने जो सन्देश भेजे है उसके वर्ण-वर्ण और अक्षरअक्षर मे से स्वदेश-प्रेम और जाति-हितैषिता टपक रही है। इसको पढते समय ऐसा जान पड़ता है मानो शोक-दुःख जर्जरा स्वयं भारतमाता ही अपने हृदय का उद्गार निकाल रही हो। इन गुणों के साथ-साथ इसमे प्रासादिकता और स्वाभाविकता भी खूब भरी हुई है । आठवॉ पद्यस्वभावोक्ति अलङ्कार का खासा उदाहरण है । शब्दालङ्कार की तो सर्वत्र बहार है। अधिकाश अलङ्कार प्रेमी अलङ्कार के पचड़े मे पड़कर रचना-प्रवाह की स्वाभाविकता को नष्ट कर देते है; पर यहाँ यह बात नहीं। इसमे यमकानुप्रास का अनायास ही समावेश हुआ है । शब्दो का यथोचित प्रयोग कविकला का प्रधान अङ्ग है । भावमूलक कवि इस ओर विशेष ध्यान भले ही न दें, फिर भी प्रकृत कविता और श्रम-सिद्ध कविता के परख की मुख्य कसौटी वही है। कविवर सत्यनारायण इस परीक्षा मे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते है । "कूकि कूकि केकी कलित कुञ्जन करत कलोल" इस पक्ति को एक ओर मुंह से बोलिये और दूसरी और कान से केकी की ध्वनि सुनिये ! खेद है, "भ्रमरदूत' ४० पद्यो मे ही रह गया , नही तो हम आगे