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पं० सत्यनारायण कविरत्न
वंशी और मुरली का भी स्वर सुनते । चतुर्थ पद्य के "छटा चूई परै" मे चूई शब्द कितना उपयुक्त और अर्थवाहक है। इन शाब्दिक चमत्कारो के सिवा “भ्रमर-दूत" मे कल्पना-कामिनी का भी कुछ कम सौन्दर्य प्रदर्शित नही हुआ है । ३०, ३१ और ३२ वे पद्य मे भारतीय अगुआओ का फोटो उतारा गया है । 'भ्रमर दूत' अपने कवि को प्रतिनिधि-कवियो की श्रेणी मे स्थान प्रदान करता है । कविता की भाषा के विषय मे पाठकजी जैसे ब्रजभाषा मर्मज्ञ ही कुछ राय दे सकते है । कविवर सत्यनारायण ब्रज के पास ही रहते थे । ब्रजभाषा के अत्यन्त प्रेमी, प्रशसक और समर्थक थे। उसकी खूबियो और बारीकियो को समझते थे और समझने की चेष्टा मे रहते थे। इस अवस्था मे उनकी भाषा के विषय मे हमारे जैसे लोगो के कथन का मूल्य ही क्या हो सकता है ? हॉ, उनके ब्रजभाषा प्रेम की तारीफ हम जरूर कर सकते है। ऐसे समय मे, जब कि सारा देश पठी बोली के पक्ष मे था, आप अकेले ही (यह कुछ अत्युक्ति नही, ब्रजभाषा के पक्ष समर्थक कुछ लोग इस समय भले ही हो, पर उसमे सुधार और सामयिकता लाकर लिखनेवाला कोई नहीं) ब्रजभाषा का झडा अन्त समय तक उठाये रहे। "भ्रमर-दूत" मे भी वह उसे नही भूले । कवि के आन्तरिक विचारों का पता उसकी कविता से ही लगाया जा सकता है । यशोदा के मुख से "लखियत जो ब्रजभाषा जाति हिरानी सोऊ" कहलाकर आपने ब्रजभाषा के अप्रचार पर खेद प्रकट किया है । यथार्थ मे ब्रजभाषा के अन्तकाल मे सत्यनारायण उसके एक प्रतिभाशाली कवि हो गये, पर उन्हे अपने प्रतिभा-प्रदर्शन का सम्पूर्ण अवसर नहीं मिला। __ "भ्रमर-दूत" निर्दोष है--यह बात नहीं । छिद्रान्वेषी समालोचक इसमे कई दोष भी निकाल सकता है; पर हम यहाँ दोष ढूंढने नही चले हैं। ___ "कविरत्नजी ने एक जगह लिखा है-“लोल लोल तह अति अमल दादुर बोल रसाल" दादुर की बोली वर्षा मे सुखद अवश्य जान पड़ती है; पर उसे रसाल कहना कुन खटकता है । गुसाईंजी का कथन "वेद पढत जनु बटु समुदाई" अवश्य ठीक है। कविता को सामयिक बनाने के लिये कवि ने