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पं० सत्यनारायण कविरत्न
इस प्रकार कुछ रचनाएँ तो काल-कवलित होने से बच रही। तत्पश्चात् मैने जीर्ण-शीर्ण काग़जो से कुछ और रचनाएँ नकल करके अपने सग्रह मे सम्मिलित की। अन्तत: सत्यनारायणजी के अनन्य मित्र चतुर्वेदी अयोध्याप्रसादजी पाठक की कृपा से 'हृदय-तरङ्ग' प्रकाशित हो गया। अपनी मृत्यु के दो मास पूर्व, १२ फ़र्वरी सन् १९१८ के पत्र मे, सत्यनारायणजी ने मुझे लिखा था--"आपके पत्र से ज्ञात--विश्वास--हुआ कि 'हृदय-तरङ्ग' इस ससार मे उठ सकेगा---यह इस ग्रामीण हृदय का सच्चा नैसर्गिक उद्गार है। इसी से ऊपर कहा है कि जो आपके द्वारा संगृहीत हुआ है, जिसे आपका अवलम्ब मिला है वह अविलम्ब ही अवश्य-अवश्य प्रकाशित हो। यद्यपि आपको नही चाहिये, तथापि वह आपकी कोति-कौमुदी से दिशाओ को मुग्ध करेगा, इसमे एक अक्षर भी मिथ्या नही।"
"हृदय-तरग" का हिन्दी ससार ने अच्छा आदर किया और सग्रह-कर्ता की भी खूब तारीफ की गयी, जिसमे तीन चौथाई के हकदार, सग्रह के असली सम्पादक चतुर्वेदी प० अयोध्याप्रसाद पाठक थे।
__"हृदय-तरङ्ग" मे सत्यनारायणजी की लगभग वे सभी कविताएँ प्रकाशित हो गयी है जो पत्र-पत्रिकाओ मे निकली थी। उनके साथ ही 'प्रेमकली और 'भ्रमरदूत' नामक पद्य-प्रबन्ध भी छाप दिये गये है।
"भ्रमर-दूत' के विषय में कविवर लोचनप्रसाद पाण्डेय ने लिखा था-- "यह हृदयोल्लासिनी और अनूठी रचना है। २५वों पद्य मेरे हृदय-ज्योति चि० माधवप्रसाद के वियोग मे तो कविरत्नजी ने नही लिखा ? नहीं, नही, वैसा नही है -न होते हुए भी यह पद्य नहीं, कविताश----अनुपम कवित्वपूर्ण रचना--मेरे शोक मे, वियोग मे, सहानुभूति के लिये है।"
२५ वॉ पद्य, जिसने पाण्डेयजी के व्यथित हृदय में अपने स्वर्गीय पुत्र माधवप्रसाद की स्मृति उत्पन्न कर दी, निम्नलिखित है-----
"लगत पलास उदास शोक मे अशोक भारी। बोरे' बने रसाल, माधवी लता दुखारी।