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प० सत्यनारायण कविरत्न
असन बसन बिन कम्पत तन अरु अस्फुट भाषा । किन्तु जियावति तिन्है एक बस प्यारी आशा ॥ ऐसे जीवन-संग्राम मे, होवहि वाछित काज है । क्योकि सुखद आवन चहत, श्री ऋतुराज स्वराज है ॥ ४ ॥
भारतीय कोकिल प्रियतम निज कूक या स्वदेश मे नवजीवन सचार बहु दिन के सुसुप्त को करुणामयी कल कोमल रसाल वाणी सो याहि उठावौ ॥
सुनावी ।
करावी ॥
जगावी ।
जासों यहि आयावर्त को नष्ट होइ सन्ताप है । जग जगमगाय नव जोति सों, अनुपम प्रबल प्रताप है ॥ ५ ॥
धन्य धन्य वह पुण्यभूमि जिन तुम उपजाई । धन्य धन्य वह कुल जिन तुम सी महिला गाई || धन्य आगरा नगर जहां शुभ चरन पधारे । धन्य धन्य हम सब दरसन पाइ तिहारे ।।
सत् विनय प्रवाहित कीजिये, देश-प्रेम रस की नदी । बस अर्पित यह तथ क्रोड मे, श्रीसरोजिनी - षट्पदी ॥ ६ ॥
सत्यनारायणजी ने इस षट्पदी की एक प्रति आचार्य पद्मसिंहजी शर्मा के पास भेजी थी । शर्माजी ने उसके सम्बन्ध मे उन्हें एक चिट्ठी में लिखा था-
"कल प० मुकुन्दरामजी की भेजी हुई" श्रीसरोजिनी - षट्पदी" पहुँची । उसे पाकर मेरा मन सरोज विकसित हो गया । खैर, कुछ हो, काव्यदृष्टि सेतों यह "षट्पदी" आपकी बढिया रही। "श्रीसरोजनी-षटपदी" यह शीर्ष बड़ा ही औचित्यपूर्ण है । पढकर तबियत फड़क गई। जी चाहता है, धाघपुर पहुँचकर धूमधाम से इसकी बधाई दूं । भई वाह ! क्या शीर्षक
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