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श्रीतिलक-वन्दना
. ७१ ढूँढ़ा है "श्रीसरोजनी-षट्पदी' ! सचमुच "शीर्षकौचित्य" के उदारहणों की चौटी पर बैठाने लायक है । मैं ख्याल करता हूँ, इस शीर्षक के सूझते ही आप भी उछल पड़े होंगे और हर्षातिरेक से झूमने लगे होंगे ! ऐसा अनुरूप पद कभी भाग्य ही से हाथ आता है। क्या कहूँ पास नहीं, नहीं तो जी खोल कर 'दाद' के अतिरिक्त कुछ और भी देता ! 'सरोजनी' नाम की निरुक्ति "ऋतुराज-स्वराज' का रूपक और अन्त में समर्पण, सब ही अच्छे हुए हैं। शाबाश ! "ईंकार अजतो आयदो मर्दा चुनी कुनन्द ।"
इस पत्र के उत्तर में सत्यनारायणजी ने आचार्य जी को लिखा था, ---''आपका कृपा-पत्र मैंने अपने सार्टिफ़िकेट के लिफ़ाफ़ में रख दिया है। सच जानिये, जितना उत्साह प्रदान आपके इस पत्र ने मुझे किया है, वैसा जागीर नहीं दे सकती थी !”
श्रीतिलक-वन्दना जब लोकमान्य तिलक आगरे पधारे थे तब सत्यनारायणजी ने यह कविता पढ़ी थी--
जय जय जय द्विजराज देश के साँचे नायक । यदपि प्रभासत वक्र, सुधा नवजीवन दायक ।। दृग चकोर आराध्य राष्ट्र-नभ-प्रतिभा भाषा ।
वन्दनीय विस्तार विशारद ज्योत्स्ना आशा ।। जय चित पावन सद्भाव सों, जग शुभचिन्तक प्रति पलक । शिब-भारत-भाल-बिशाल के, लोकमान्य अनुपम तिलक ।।
देश-भक्ति-स्वर्गीय-गङ्ग-आघात-तीन तर । गङ्गाधर सम सह्मो अटल मन तुम गङ्गाधर ।। नित स्वदेश हित निर्भय निर्धम नीति प्रकाशक ।
जय स्वराज्य संयुक्त-शक्ति के पुण्य उपासक ।। जय आत्म-त्याग अनुराग के, उज्ज्वल उच्च उदाहरन । जय शिव-संकल्प स्वरूप शुभ एक मात्र तारन-तरन ।