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________________ ६८ प० सत्यनारायण कविरत्न नित प्यारे स्वदेश हित कृत तन मन धन अरपन । आत्मत्याग आदर्श दूरदर्शी अविचल प्रन ।। जिह प्रतिभा गुन शासक सजग, शासित समयोचित फले । जग विदित कर्मयोगी सदय, सहृदय श्रीयुत गोखले ॥ ३॥ अब सो अन्तरधान भये पौरुष विकास मे। जिमि प्रभात की प्रभा मिले पूरन प्रकास मे ॥ जननि जन्म भुवि गोद यदपि तिन देह सिरानी। गूंजति उर नभ अजहु दिव्य वह विद्युतबानी ॥ सम्भव इन धन असुआन सन, नेह लता विस्तीर्ण हो । अभिनव प्रसून सन्ताप हर, महाप्राण अवतीर्ण हो ।। ४ ।। नही गोखले जगत जगत आदर्श पियारी । भारत जग जीवन जहाज हित ध्रव को तारी ।। स्वत्व और अस्तित्य काज जब करत समर हम । उत्साहित सो करत देत आदेश अनूपम ॥ निज स्वार्थ भेद बिसराय सब, मिलिये करि स्वविरोध-इति । विधि बद्ध समुन्नत कीजिये, भारतीय-सेवक-समिति ॥ ५ ॥ अब तो हिन्दू सकल भेद बन्धन निरवारौ। विपति जनित निज विषम वेदना बिल बिचारो॥ यदि तुम थापन चहत गोखले कीर्तिस्मारक । साँचेमन सो तो शिक्षा के बनो प्रचारक ॥ जिहि लहि चहुँ भारत युवक, नवजीवन जागृति सचरैं। उर अविकल धीरज धारि दृढ, सत्य देश-सेवा करें ॥ ६॥
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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