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________________ पं० सत्यनारायण कविरत्न मुझे खॉसी का प्रबल रोग था और उसने मेरे फेफडो को इतना बिगाड डाला था कि मुझे रात दिन चैन नही पड़ता था। मार्ग की थकान से उस दिन खॉसी का वेग और भी बढ गया--यहा तक कि मैं सीधा नही लेट सकता था। जब छाती के सहारे उलटा लेटता था तब पल-भर के लिये कल मिल जाती थी और फिर वही हाल हो जाता था। इस प्रकार मै एक गाँववाले की चौपाल मे पडा दुःख की सॉस ले रहा था। ईश्वर की माया, उसी दिन मेरे दु ख का अन्त होनेवाला था। एक वृद्ध ग्रामीण कृषक ने मेरे पास आकर मेरा सब हाल पूछा और मुझे धीरज देकर कहा--"घबडाने की बात नहीं, जल्दी अच्छे हो जाओगे ! सबेरे मैं दवा बता दूंगा सो बना लेना और अभी के लिये मै दवा लाये देता है। ऐसा कहकर वह बूढा वहाँ से उठा और कोई ५ मिनट मे ही दवा लेकर वापस आया। मैने थोडी सी दवा खाली ओर कुछ दूसरी बार के लिये रख ली। खाने मे मुझे कुछ नमक कैसा स्वाद जरूर जाना पड़ा। पर न जाने वह बूढा मेरे लिये साक्षात् धन्वन्तरि ही था । जो खांसी अनेक डाक्टरो ओर वैद्यो के हजार प्रयत्न करने पर भी नहीं रुकी थी यह केवल आघ वटे में ही रुक गई । मैं थका तो था ही खासी बन्द होते ही गहरी नीद में सो गया। मुझे सबेरे तक बीच मे दवा खाने की जरूरत नहीं पड़ी। सबेरा होते ही उस बूढ़े ने आकर मेरा हाल पूछा। मैने उसकी दवा की खुव सराहना की और दवा बतला देने की प्रार्थना की। उस बूढे ने बड़ी खुशी से मुझे दवा लिखा दी और अन्त मे बबूल के पेड की ओर इशारा करके कहा--"देखो यह तुम्हारे रोग के लिये रामबाण है। जैसे वने वैसे इसका सेवन करो। इसकी छाल को खाना, उसी को औटा कर पानी पीना और इसी की दतौंन रोज करना। जब मरे हुए जानवर का निर्जीव चमडा बबूल की छाल से मजबूत और पक्का हो जाता है तब क्या तुम्हारे फेफड़ो का जीवित चमड़ा मजबूत नही होगा ?" मैने उस बूढे के आज्ञानुसार दवाई बनाली और उसका सेवन करने लग गया। आज कुछ, कल कुछ--थोड़े ही दिनो मे बिलकुल भला-चङ्गा हो गया।"
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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