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________________ आराम कैसे हुआ ६५ दशा में भी 'भवभूति' के नाटक 'मालती-माधव' का अनुवाद कर रहा हूँ। पूर्ण होना भगवान के हाथ है।" ८ जून १९१४ के पत्र में सत्यनारायणजी ने मुझे लिखा था--"आजकल ग्रीष्मकाल मे सास का प्रकोप है।" सत्यनाराणजी की गुरुवहन श्रीजानकी देवी ने मुझसे कहा था कि श्वास की बीमारी के दिनो मे रात-रात-भर उन्हें नीद नही आती थी। माथा जमीन पर रखकर बैठे रहते थे। उसी समय उन्होने यह कविता की थी-- बस, अब नहि जाति सही। बिपुल बेदना बिविध भाति जो तन-मन ब्यापि रही। कबलो सहे, अवधि सहिबे की कछु तो निश्चित कीजे । दीनबन्धु यह दीनदसा लखि क्यो नहिं हृदय पसीजे ।। बारन दुख टारन तारन मे प्रभु तुम बार न लाये। फिर क्यो करणा करत स्वजन पै करुणा-निधि अलसाये ॥ यदि जो कर्म-यातना भोगत तुम्हरे हूँ अनुगामी। तो करि कृपा बतायो चहियतु तुम काहे के स्वामी ।। अथवा विरद बानि अपनी कछु कै तुमने तजि दीनी। या कारण हम सम अनाथ की नाथ न जो सुधि लीनी ।। वेद बदत गावत पुरान सब तुम त्रय ताप नसावत । शरणागत की पीर तनक हूँ तुम्हे तीर सम लागत ।। हमसे शरणापन्न दुखी को जाने क्यो बिसरायो। शरणागत-वत्सल सत यो ही कोरो नाम धरायो ।। आराम कैसे हुआ? पडित सत्यनारायणजी ने अपने स्वास्थ्य-लाभ करने का वृत्तान्त एक चतुर्वेदी सज्जन को इस प्रकार सुनाया था--"मैं अपनी बीमारी की दशा मे एक दिन अपने गाँव से कार्यवश किसी दूसरे गाँव जा रहा था। मार्ग में रात्रि हो जाने के कारण, बीच के एक गांव मे ठहर जाना पड़ा।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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