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रवीन्द्र-वन्दना
विशद विवेक विकास प्रकास करत अति सुन्दर । महा महिम भुवि कोविद उर अधिवसत पुरन्दर ॥
यासों मंजु 'रवीन्द्र' तव, नाम सुभग सार्थक मधुर । जग अबके अखिल कबीन मे, लसत आप परबीन
धुर ॥३॥
जैसी करी कृतारथ तुम अँगरेजी भाषा । तिमि हिन्दी उपकार करहुगे ऐसी आशा ।। एक भाव सो रवि ज्यो वस्तुनि वृद्धि प्रदायक । बरसत सरसत इन्द्र सकल थल त्यो सुरनायक ॥
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'रवि' 'इन्द्र' मिले दोउ एक जहँ, तर अचरज कैसो अहै । यह प्यासी हिन्दी चातकी, तव रस को तरसत रहै ||४||
धन्य धन्य वह पुण्य भूमि जिन तुम उपजाये । धन्य धन्य वह निरमल कुल तुमसे सुत जाये || धन्य आगरा नगर जहाँ शुभ चरन पधारे । धन्य धन्य हमहूँ सब दरसन पाइ तिहारे ॥
अस देहिं दिव्य 'देवेन्द्र' वर, करहु देश- सेवा भली । यह अर्पित तव कर-कमल में, सत्य सुमन गीताञ्जली ||५||
सन् १९२१ मे मैने शान्तिनिकेतन मे श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर की सेवा मे उपस्थित होकर उन्हें सत्यनारायण का वह चित्र दिखलाया, जो हृदय तरग मे छपा है और पूछा - " क्या आपको सत्यनारायण का कुछ स्मरण है ?" कविवर ने उत्तर दिया- "हाँ, वही हिन्दी - कवि जिन्होने मेरे नाम के दोनो शब्दो को बड़ी खूबी के साथ अपनी कविता मे लिखा था ।" कविवर का अभिप्राय "रवि' 'इन्द्र' मिले दोऊ एक जहँ तर अचरज कैसो अहै" इत्यादि पंक्तियो से था । मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि कविवर को छह-सात बरस पहले की बात किस तरह याद रही । सत्यानारायण का मधुर स्वर