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________________ ७४ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । राज्यं सुरालयसुखं नवधा सुलब्धि कैवल्यजां जिनप ! मुक्तिरमां लभन्ते ॥७॥ अर्थ- हे नाथ ! जो भव्यजीव सब जीवोका हित करनेवाले आपके कहे हुए धर्मरूपी अमृतका पान कर लेते हैं वे अत्यंत विपम ऐसे जन्ममरणको अवश्य जीत लेते हैं। तथा हे जिनेन्द्र ! वे जीव राज्यको प्राप्त करते हैं, स्वर्गके सुख प्राप्त करते हैं, केवल ज्ञानके साथ उत्पन्न होनेवाली नौ लब्धियोंको प्राप्त होते हैं और मोक्षरूपी स्त्रीको प्राप्त कर लेते हैं । मूर्तिश्च ते वसतु मे हृदि दर्शनं च । ध्यानं स्तवो हि मननं स्मरणं विचारः। जन्मान्तरेऽपि सुखदौ चरणौ लभेतां यावद्धवेन सुखदा ननु मोक्षलक्ष्मीः ।।८॥ ___ अर्थ- हे भगवन् अरनाथ ! जबतक मुझे सुख देनेवाली यह मोक्षलक्ष्मी प्राप्त नहीं होती तबतक मेरे हृदयमें आपकी मूर्ति सदा निवास करती रहे, सदा आपका दर्शन होता रहे, सदा आपका ध्यान होता रहे, सदा आपकी स्तुति होती रहे, सदा आपका मनन होता रहे, सदा आपका विचार होता रहे और जन्मजन्मांतरमें सुख देनेवाले आपके दोनों चरणकमल सदा प्राप्त होते रहे ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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