SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीअरनाथस्तुति । ७३ त्वामेव मोक्षपददं विमलं समर्थ । मन्ये प्रभुं विषहरं वरदं महान्तम् ॥५॥ .. अर्थ- हे भगवन् ! मैं आपको शान्ति देनेवाले, संसा' रको नाश करनेवाले, सुख देनेवाले और क्षमागुणको देनेवाले मानता हू । आत्माके आनंदको देनेवाले, आत्मसुखको देनेवाले और परमपुरुष मानता हूं। हे नाथ ! आपको ही मैं मोक्ष देनेवाले, अत्यंत निर्मल और समर्थ मानता हूं तथा सबके प्रभु, विषको हरण करनेवाले, वर देनेवाले और महापुरुष मानता हूं। येषां चिरं भवति ते हृदि शान्तिमंत्रः तेषां वसन्ति न च चेतसि कर्मचौराः । व्याधिःक्षुधा तुदति तान्न तृषा न चिन्ता शंका भयं न विषयस्य धनस्य तृष्णा ॥६॥ अर्थ- हे नाथ ! जिन पुरुषोंके हृदयमें आपका शांतिमंत्र रहता है उनके हृदयमें कर्मरूपी चोर कभी निवास नहीं कर सकते । इसके सिवाय उनको न तो कभी व्याधि सताती है, न क्षुधा सताती है, न प्यास सताती है, न चिंता सताती हैं, न शंका सताती है, न भय सताता है और न विषयोंकी तृष्णा व धनकी तृष्णा सताती है। धर्मामृतं हितकरं च तवैव पीत्वा भव्या जयन्ति विषमं खलु जन्म मृत्युम् ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy