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________________ ७२ श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति | स्तुत्याः सदा स्वसुखदाः परमा अचिन्त्या भक्त्या तथापि च मया स्तविता जिनेश ||३|| अर्थ - हे देव, हे अरनाथ परमदेव ! आपके समस्त गुण अनन्त हैं तथा वे सब गुण शान्तिको देनेवाले हैं, उपमारहित हैं, अचल हैं, अमूल्य हैं, सदा स्तुति करने योग्य हैं, आत्मसुख को देनेवाले हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं और अचित्य हैं । हे जिनेश ! हे नाथ ! तथापि मैने केवल भक्तिके वशसे ही उन गुणोंकी स्तुति की है । शक्रोऽपि तांश्च कथितुं न सहस्रवक्त्रः शक्तश्च का मम कथा किल तव देव । भक्त्या तथापि भयदं क्षपितुं सुकर्म स्वल्पा गुणा जिनविभो ! कथिता मया ते ॥ ४ ॥ अर्थ - हे जिन ! हे विभो ! उन गुणोंको कहने के लिये इन्द्र हजारों मुखोंसे भी समर्थ नहीं हो सकता, फिर भला मेरी तो बात ही क्या है । तथापि हे देव ! मैने अपने भय देनेवाले कर्मोंको नाश करनेके लिये केवल आपकी भक्तिसे थोडेसे गुण निरूपण किये हैं । शान्तिमदं भवहरं सुखदं क्षमादं ह्यानन्ददं स्वसुखदं परमं पुमांसम् ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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