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________________ २८ श्रीशान्तिसागरचरित्र । सुस्वागतं कृतं सर्वे संघस्य च जगद्गुरोः । प्रतिघसं गुरुमव्यान् पाययन् वचनामृतम् ॥१०॥ संघेनसह संघश्रीः दिनानि कतिचित्स्थितः।। पुण्यशाली नरेंद्रोपि राजलोकः समं तदा ॥११॥ श्रुत्वा जगद्गुरोः काति वंदनार्थं समागतः । नत्वा मस्तकमानम्य श्रुत्वा सद्गुरुदेशनाम् ॥१२॥ गृहीत्वा धर्मलाभं स धर्ममूर्तिः गृहं गतः । धर्ममुद्योतयन्नेवमचलत्पुरतो गुरुः ॥१३॥ अर्थ~- मार्गमें लोगोंको उपदेश देते हुए वे आचार्य संघसहित सांगलीनगरमें पहुंचे। वहांपर राज्यकार्यके अधिकारियोंने, प्रजाके लोगोने, सेठ लोगोंने और श्रावकोंने सबने मिलकर जगतगुरु आचार्यका और संघका बडी धूमधामके साथ स्वागत किया। संघके नायक आचार्य शांतिमागर प्रति दिन भव्यजीवोंको वचनामृत पिलाते हुए संघके साथ कुछ दिन वहां ठहरे । वहाँके राना भी पुण्यवान थे उन्होंने भी आचार्य महाराजकी कीर्ति सुनी और फिर वे अपने राजलोगोंके साथ आचार्य महाराजकी वदना करनेके लिये आये उन्होंने मस्तक झुकाका आचार्यको नमस्कार किया, आचार्यमहाराजका उपदेश सुना और इसप्रकार धर्मका लाभ लेकर धर्ममूर्ति वे नरेश घरको चले गये। तथा आचार्य महाराज इमप्रकार धर्मका उद्योत करते हुए आगे चले।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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