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________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र । २९ क्रमात् मिरजराज्ये संयातः संबोधयन् जनान् । तत्रापि श्रावकैर्मुख्यै राजलोकैर्वणिग्वरैः ॥१४॥ स्वागतं शान्तिसिंधोश्च कृतं योग्यं यथागुरोः । वन्दनार्थ नरेन्द्रोप्यागतः कृत्वा च वन्दनाम् ॥१५ धर्मामृतं गुरोः पीत्वा पार्थे स्थित्वा स्वयं नृपः। श्रुत्वा सदुपदेशं च निर्विकारगुरोर्मुखात् ॥१६॥ हषांद्याचितवान् भूपश्चाशीर्वादं गुरोस्तदा । गुरुः प्रवचनसारं स्वाध्यायार्थ ददौ मुदा ॥१७॥ ___ अर्थ- तदनंतर वे आचार्य मार्गमें लोगोंको उपदेश देते हुए, अनुक्रमसे चलकर मिरज राज्यमें पहुंचे। वहांपर भी मुख्य मुख्य श्रावकोंने राज्यकार्यके अधिकारियोंने और सब व्यापारियोंने आचार्य शांतिसागरका वैसा ही स्वागत किया जैसा कि गुरुका किया जाता है। आचार्य महाराज की वंदना करनेके लिये मिरजके महाराज भी पधारे। उन्होंने आचार्य महाराजकी वंदना की और समीप बैठकर गुरुके मुखसे धर्मामृतका पान किया। निर्विकार गुरुके मुखसे श्रेष्ठ उपदेशको सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और फिर उन्होंने गुरुमहागजका आशीर्वाद मांगा। गुरु महाराजने भी स्वाध्याय करनेके लिये प्रवचनसार नामका ग्रथ उन महागजको दिया। धर्म प्रवर्द्धयन् सूरिस्ततो गत्वा क्रमाच्छनैः । आलंदनगरं प्राप्तः निजामनृपशामितं ॥१८॥
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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