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श्रीमति ।
ये केपि मुक्ता द्विविधैव संगभव्यं वंद्या गुरवस्तएव ॥ ८॥
अर्थ- जो गुरु अपने आत्मा सदा लीन रहते हैं, कुछ और जातीये शुद्ध है. नियलिंग धारण करते है, और भोगोदर और अंतरंग भाग दोनो प्रकारके सिरहित में ऐसे ही गुरु जीवीके द्वारा वंदना करने चाग्य होते है ।
श्रद्धा च भक्तिस्त्रिषु तेषु कार्या देवत्वशास्त्रत्वगुरुत्ववच्चा |
नेपु प्रवृत्तिः परमार्थचुच्चा मोक्षार्थिभव्यर्निजराज्यहेतोः || ||
-- मोक्षका करने जोवो अपने PR171 7130 915 à feà veur die महिने और मनि कमी नाहिये. आमप्रणीत शारदा और कि करनी चाहिये था
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ये केपिमादायुक्त
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ध्रुवं देवा भवदाय त्याज्याः ।