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________________ 1 ९६ श्री चतुविशतिजिनस्तुति | शरणमें आये हुए हैं उनके लिये आपने सदाके लिये शांति देनेवाले मोक्षका मार्ग निरूपण किया है। ये केपि चाष्टादशदोपमुक्तास्त एव देवा हृदि चिन्तनीयाः । अनन्यभावैः सुखशान्तिहेतो Caning भव्यैश्व भक्त्या हृदि धारणीयाः ॥६॥ अर्थ- जो देव भूक, प्यास आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं, वे ही देव भव्यजीवोको सुख और शांति प्राप्त करनेके लिये अनन्य भावोंसे हृदय में धारण करने योग्य हैं तथा भक्तिपूर्वक हृदयमें चितवन करने योग्य हैं । आप्तप्रणीतं नयमानसिद्धं सार्वं सुशास्त्रं शिवदेशकं च । पठन्ति ये केपि च पाठयन्ति भवन्ति मुक्ताः सुखिनस्त एव ॥७॥ अर्थ — जो शास्त्र अरहंत तीर्थंकर परम देवके कहे हुये - हैं जो नय और प्रमाणोसे सिद्ध हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं और मोक्षका उपदेश देनेवाले हैं, वे ही श्रेष्ठ शास्त्र कहलावे हैं, ऐसे शास्त्रोंको जो पढते हैं वा पढाते हैं, वे भव्यजीव अवश्य ही मुक्त होते हैं और सदा के लिये सुखी हो जाते हैं । निजात्मलीनाः कुलजातिशुद्धाः निर्गयलिंगाः भवभोगदूराः ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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