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________________ ९८ श्री चतुर्विंशति जिन स्तुति । नातप्रणीतं शिवदं च यन्न त्याज्यं कुशास्त्रं च तदेव शीघ्रम् ॥१०॥ अर्थ- जो देव अठारह दोप सहित हैं और जन्ममरण रूप संसारको बढानेवाले हैं, वे कुदेव हैं, उनका दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये । तथा जो शास्त्र आप्तके कहे हुए नहीं है और मोक्ष देनेवाले नहीं हैं, उनको कुशास्त्र कहते हैं ऐसे कुशास्त्रोंका भी शीघ्र ही त्याग कर देना चाहिये । उनका पठन पाठन कभी नहीं करना चाहिये । जात्यादिशुद्धा अपि दृष्टिहीना निजात्मशून्याश्च कषाययुक्ताः । युक्ताश्रदोषद्विविधैश्च संगै - स्त्याज्याश्च भव्यैर्गुरवस्त एव ॥ ११ ॥ अर्थ - जो गुरु कुलजाति से शुद्ध होने पर भी सम्यग्दर्श नसे रहित हैं, आत्मज्ञान से रहित हैं, कपाय सहित हैं, अठारह दोषोंसे और अतरग वहिरंग परिग्रहोंसे सुशोभित हैं ऐसे गुरु भव्यजीवोंको दूरसे ही त्याग करदेने चाहिये । श्रद्धा च भक्तिस्त्रिषु नैवकार्या देवत्वशास्त्रत्वगुरुत्वबुध्द्या । तेषु प्रवृत्तिर्न सुखार्थिभिव प्राणे गते वा सति पीडिते वा ॥ १२॥
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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