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वच
सवार्थ सिद्धि टोका म.
तिनिमें जो जो प्रधानताकरि व्याख्यान है सो विशेषकरि गोमटसारमैं कह्या है । तहांतें जाननां ॥ ___इहां कोई फेरि पूछे है, जो यहु श्रुतज्ञान दोय भेदरूप बारह भेदरूप है सो यहु विशेप काहेरौं भया है ? तथा ताकी प्रमाणता कैसे है। ताका उत्तर यहु विशेप वक्ताके विशेपते है । वक्ता तीन प्रकार है । प्रथम तो सर्वज्ञ है तहां तीर्थकर तथा सामान्यकेवली बहुरि इरुतकेवली । बहुरि तिनिके पीछले सूत्रकार टीकाकारतांई भये आचार्य । तिनकू आरातीय ऐसा नाम कहिये । तहां सर्वज्ञपरमर्षि जिनिकै छद्मस्थके चितवनमें न आवै ऐसी अचिंत्य विभूतिका विशेप निका पाईये । तिनितें अर्थतें आगम कह्या । ताका प्रमाणपणां तो प्रत्यक्षज्ञानीपणांतें तथा निर्दोपपणातही है बहुरि तिनिके पान निकटवर्ती जे बुद्धिके अतिशय तथा ऋद्धिकार युक्त ऐसे गणधर इरुतकेवली तिनिकरि रचे अंगपूर्वरूप सूत्र है। ताका प्रमाणपणां सर्वज्ञकी प्रमाणतातें हैही । ते सर्वज्ञके निकटवर्तीही हैं । बहुरि आरातीय जे उनके पीछले आचार्य तिनितें | इस कालदोपते थोरी आयु थोरी बुद्धि, थोरे सामर्थ्य के धारी जे शिष्य तिनिके उपकारकै अर्थि दशवैकालिकादिक रचै है । ताका प्रमाणपणां अर्थते जो सर्वज्ञ तथा गणधरनितें कह्या है सोही यह है ऐसे है। जैसे क्षीरसमुद्रका जल एक घटमैं भार ल्यावै सो क्षीरसमुद्रकाही है । तैसें यह सर्वज्ञकी परंपरानै अर्थ ले अपनी बुद्धिके अनुसार करा सो वहही
है ऐसे जाननां ॥ 8 इहां कोई पूछे, जो इरुतशब्दकरि ज्ञानही ग्रहण किया, तो ऐसे वचनरूप जो द्रव्यश्रुत ताकै श्रुतपणां कैसे प्रसिद्ध Pा है ? ताका उत्तर- जो, द्रव्यश्रुतकै उरुतपणा उपचारतें आवै है । जातै इरुतशब्दका कहनांही श्रुतकै द्रव्यश्रुतपणा जनावै है । द्रव्यश्रुत है सो भावश्रुतज्ञानका निमितिकारण है । याहीके निमित्ततें भावश्रुतज्ञानके भेद भी अंगबाह्य अंगप्रविष्ट आदि भये हैं । जो ऐसे न होय, तौ ज्ञानका ३रुत ऐसा नाम काहेकू है ? ज्ञानका वाचकही स्पष्ट नाम कहते बहुरि
अंग आदिके भेद कहनेते अन्यवादी च्यारि भेदरूप वेद कहै हैं । तथा पडंग वेदके कहै हैं । तथा वेदकी सहस्र | शाखा कहै हैं । तिनते न्यारापणां प्रगट होय है । ते श्रुताभास हैं प्रमाण नाही । बहुरि श्रुत है सो परोक्षप्रमाण है। बहुरि मतिपूर्वक कहनेते अवध्यादि निमितिते भी न होय है । अर सर्वथा नित्यपणाका निपेध है बहुरि कोई श्रुतपूर्वक भी इरुत हो है । तथापि सो भी मतिपूर्वकही है । जातें जाकै पूर्ववचन आवै तव वचनके श्रवणरूप मतिज्ञान तौ अवश्य होयही । ताकै पीछे इरुतज्ञान होय । तातें साक्षात् तौ मतिपूर्वकही होय है। बहुरि स्मृति आदि ज्ञान भी श्रुतज्ञान नांही है । जातें स्मृति तौ मतिज्ञानहीका विशेप है ॥
वहरि जे मीमांसक शब्दात्मक द्रव्यश्रुत वेदकं कहै हैं, ताकू ज्ञानपूर्वक नाही कहै है । सर्वथा नित्य कहै है ।