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सर्वार्थ
वच
सिद्धि
निका
टी का
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। हानि आवै है । सो प्रतिज्ञा कहा ? ' एक विज्ञान तौ दोय पदार्थकू न जानै है बहुरि दोय विज्ञान एक पदार्थकू न || जान है। ऐसी प्रतिज्ञा है. ताकी हानि होय है । अथवा सर्वसंस्कार हैं ते क्षणिक हैं ऐसी ' प्रतिज्ञा करै है, ताकी भी हानि होय है । जाते अनेकक्षणवर्ती एक विज्ञान मान्या है । अनेक पदार्थका ग्रहण क्रमकार होय है । बहुरि वे कहै; जो, अनेक पदार्थका ग्रहण एकक्षणवर्तिविज्ञानकै तिस एक कालहीमें होय है, तो यह बनै नांही । जाते जा क्षणमैं ज्ञान उपज्या सो तो क्षण वा ज्ञानका स्वरूपका लाभही होय । जब आप भया ता पीछे अपना जो कार्य पदार्थका जाननां ताप्रति व्यापार करै है । उपजनेहीकै क्षण तो जानै नांही । बहुरि वे कहै; जो, दीपकवत् जिस समय भया तिस समय पान पदार्थ प्रकाशै, तो यहु दृष्टांत मिले नाही । जातें दीपक तौ अनेकक्षणवर्ती है । ताकै पदार्थनिका प्रकाशन होय है । बहुरि तिस योगीश्वरके ज्ञान विकल्पते भेदनितें रहित मानिये तव शून्यताका प्रसंग आवै है। जातै सर्वपदार्थनित भिन्न जानेविना तो वह ज्ञान शून्यही है ॥ __बहुरि अकलंकदेव आचार्यने प्रत्यक्षके तीन विशेपण किये हैं । स्पष्ट, साकार, अंजसा ऐसै । तिनिका अर्थ-स्पष्ट तो जो वीचिमैं अन्यकी प्रतीतिका व्यवधान न होय . अर वस्तुकू विशेपनिसहित जानै ऐसा है । सो द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता करिये तब तो मतिश्रुतज्ञान अस्पष्टही है । जातें द्रव्यका समस्तपणाकू ए जाने नाही । इंद्रिय मन प्रकाशादिकके सहायते किंचित् जाने हैं। बहुरि पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता करिये तब मतिज्ञान व्यवहारके आश्रयते किंचित् स्पष्ट भी जानै है ॥ बहुरि साकार कहनेते निराकारदर्शनका निपेध है । बहुरि अंजसा कहनेते विभंगज्ञान तथा इंद्रियमनकरि अन्यथाज्ञान हो है ताका निपेध है । ऐसें कहनेते सूत्रते भी विरोध नाहीं है । जाते प्रत्यक्ष ऐसा कहनेते तो आत्माधीन है, इंद्रियाधीन नांहीं है। बहुरि ज्ञानकी अनुवृत्तितें दर्शनका निपेध है। बहुरि सम्यक्के अधिकारतें कुज्ञानका निषेध है, ऐसें जाननां ॥
इहां कोई प्रश्न करै, सकलप्रत्यक्ष जो केवलज्ञान सो योगीश्वरनिकै है ऐसा काहेते जानिये ? ताका उत्तर; जो, भलै प्रकार जाका निर्णय किया जो वाधकप्रमाणका अभाव तातें जानिये, जो, योगिश्वरनिकै केवलज्ञान है । जाते समस्त आवरणके नाशते उपजै सो केवलज्ञान है । समस्त वस्तुंकू एककाल इंद्रियादिकै सहायविना सोही ज्ञान जान, जाकै आवरण न होय । ताका बाधक अल्पज्ञान है नाहीं । जा ज्ञानका - जोही साधक तथा बाधक होय । अन्यज्ञानका अन्यज्ञान बाधक होय नाही यह न्याय है । बहुरि बौद्धमती प्रत्यक्षका लक्षण निर्विकल्प सत्यार्थ कहै है । सो सर्वथा निर्विकल्पक होय सो तौ सत्यार्थ होय नाही। विपर्यय भी निर्विकल्पक है। निर्विकल्पकते अर्थका निश्चयही होता नाही।