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________________ व च पड्या है । जब कर्मका मिलाप दूरि होय तब ऊर्ध्वही गमन होय । बहुरि जैसे एरंडका बीज एरंडका डोडामें || बंधाणरूप था जब डोडा सूकिकार तिडकै, तब बंधाणमेंसूं उछरि ऊर्ध्व चलैः तैसें मनुष्यआदि भवकी प्राप्ति करणहारी जे गति जाति नाम आदि सकलकर्मकी प्रकृति ताका बंधाणम आत्मा है, जब इस बंधका छेद होय, तब मुक्तजीवकै | गमनहीका निश्चय होय है । बहुरि जैसे सर्वतरफ गमन करनहारा जो पवन ताका संबंधकार रहित जो दीपगकी शिखा नि का Haal लोय सो अपने स्वभावतें ऊंचीही चढे, तैसें मुक्तजीव भी सर्वतरफ गमनरूप विकारका कारण जो कर्म ताके दूरि होते टीका 16| अपना स्वभाव ऊर्ध्वगमनरूप है ताते ऊंचाही गमन करै है ॥ अ. ० आगें पूछे हैं, जो, मुक्त भये आत्मा ऊर्ध्वगमनस्वभावी है, तो लोकके अंततें ऊर्ध्व क्यों जाय नाही? | ऐसे पू• सूत्र कहै हैं सर्वार्थ-21 पान ४०१ ॥ धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८॥ याका अर्थ-- मुक्तात्मा लोकके अंतताई जाय है । परै अलोकमें न जाय है । जातें तहां धर्मास्तिकायका अभाव। है । गति उपग्रहका कारण जो धर्मास्तिकाय सो लोकत परै उपरि नाहीं है । तातें मुक्तात्माका अलोकमें गमनका अभाव 1 है । बहार धर्मास्तिकायका अभाव सर्वत्र मानिये तो लोकअलोकके विभागका प्रसंग होय । ऐसें जानना ॥ आग पूछे है, कि, ए निर्वाणकू प्त भये जीव तिनके गति जाति आदिक तौ कारण नाहीं । तातै इनविर्षे भेदका व्यवहार नाहीं है कि कछू भेदका व्यवहार कीजिये ? ताका उत्तर, जो, कथंचित् भेद भी करिये है, सो काहेते करिये? ताका सूत्र कहै हैं ॥ क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुध्दबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥ ९॥ याका अर्थ-क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अंतर, संख्या, अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगनिकरि सिद्धजीव भेदरूप साधने । क्षेत्रादि बारह अनुयोगनिकार सिद्धानकू भेदरूप करने । तहां दोय नय लगावणी, प्रत्युत्पन्नग्राहकनय भूतप्रज्ञापननय । इन दो नयनिकी विवक्षाकार भेद साधना । सोही कहिये हैं। तहां
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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