SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साय.JAI सिदि पान ३९७ 161 बहुरि पूर्व कहे जे निर्जराके कारण तिनकू निकट होते पूर्वबंध जे कर्म तिनका अभाव होय । ऐसे ए दोऊ कारण होय || तब भव कहिये पर्यायकी स्थितिका कारण जो आयुकर्म तिसकी स्थितिके समान स्थिति किये है अवशेष कर्मकी अवस्था जानें ऐसा केवली भगवान ताकै एककाल समस्त अवशेष कर्मका विप्रमोक्ष कहिये अत्यंत अभाव सो मोक्ष है। ऐसी प्रतीतिरूप करना । इहां कहै है, जो, कर्मका अभाव दोय प्रकार है, यत्नसाध्य अयत्नसाध्य । तहां चरमशरीरी आत्माकै व चनरक तिर्यच देव इन तीनि आयुका तो बंध होय नाहीं, तातै पहलेही अभाव है, सो तौ अयत्नसाध्य है। अर यत्नसाध्य निका टीका | कहिये हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि आदि च्यारि गुणस्थाननिविर्षे कोई एक गुणस्थानविर्षे मोहनीयकर्मकी सात प्रकृतिका क्षय करै है । बहुरि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धिः नरकतिर्यचगति; एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, || चतुरिंद्रिय ए च्यारि जाति; नरकतिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य आतापः उद्योतः स्थावर, सूक्ष्मः साधारण इन सोलहप्रकृतिनिका अनिवृत्तिबादरसांपरायगुणस्थानविर्षे युगपत् क्षय करै हैं । बहुरि तातै परे तिसही गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण आठ कषाय क्षय करे है । बहुरि तिसही गुणस्थानमें अनुक्रमते नपुंसकवेद अर स्त्रीवेदकू क्षय करै है। बहुरि तहांही नोकषाय षटहास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा इनकू एककाल क्षय करै है। तापीछे तिसही गुणस्थानमें अनुक्रमकरि पुरुषवेद संज्वलन क्रोध मान माया इनका अत्यंत नाश करै है। ऐसे छत्तीस प्रकृतीकी नवमें गुणस्थानविर्षे व्युच्छित्ति है । बहुरि लोभसंज्वलन सूक्ष्मसांपराय दशमगुणस्थानविर्षे नाशकू प्राप्त होय है । बहार क्षीणकषाय बारमा गुणस्थान जो छद्मस्थ वीतराग ताके उपांत्यसमय जो अंतसमयतें पहला समय ताविर्षे निद्रा प्रचला ए दोय क्षय होय हैं । बहुरि ताके अंतके समय पांच ज्ञानावरण च्यारि दर्शनावरण पांच अंतराय इन चौदहप्रकृतिनिका क्षय होय है । ऐसें इहांताई तो तरेसठि प्रकृतिका क्षय भया । तापीछे अयोगकेवली चौदहवां गुणस्थानमें पिचासी प्रकृति क्षय होय हैं, तामें अंत्यका पहला जो उपांत्यसमय ताविर्षे बहत्तरी प्रकृतिका क्षय होय है। तिनके नाम दोय वेदनीयमेंसूं एक तौ वेदनीय, देवगति, औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्मण ए पांचशरीर इनके बंधन ५, इनके संघात ५, संस्थान ६, औदारिक वैक्रियक आहारक शरीरके अंगोपांग तीनि ३, संहनन छह ६, वर्ण प्रशस्त अप्रशस्त पांच ५, गंध दोय २, रस प्रशस्त अप्रशस्त ५, आठ स्पर्श ८, देवगतिप्रायोपूर्व्य १, अगुरुलघु १, उपघात १, परघात, १, उछ्वास १, विहायोगति प्रशस्त अप्रशस्त २, पर्याप्तक १, प्रत्येकशरीर १, स्थिर अस्थिर २, शुभ अशुभ दोय २, दुर्भग १, सुस्वर दुःस्वर दोय २, अनादेय १, अयश कीर्ति १, निर्माण १, नीचगोत्र १, ऐसे बहत्तरी बहरि ताके अंत्यसमयमें तेरा प्रकृतिका क्षय है, तिनके नाम दोय वेदनीयमसूं एक वेदनीय १,
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy