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1 केवलज्ञानकी उत्पत्ति होय है । याहीत हेतु है लक्षण जाका ऐसी पंचमीविभक्तिका निर्देश किया है। तहां पूछे है, मोहका । | क्षय पहली कौन रीति-करै है ? सोही कहिये हैं । तहा प्रथम तौ भव्य होय, बहुरि सम्यग्दृष्टि होय, बहुरि परिणामकी
विशुद्धताकार वर्द्धमान होय, सो जीव असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त इन च्यारि गुणनिवि कोई गुणस्थानमें सर्वार्थ
मोहकी सातप्रकृति मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृति अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया लोभ इनका क्षयकार सिद्धि टीका
क्षायिकसम्यग्दृष्टि होयकार जब क्षपकश्रेणी चढवाने सन्मुख होय अधःप्रवृत्तिकरणकू अप्रमत्तगुणस्थानविर्षे पायकार अपूर्व- निका म.१० करणपरिणामका प्रयोगकार अपूर्वकरण नामा क्षपकश्रेणीका गुणस्थानकू भोगिकार तहां नवीन शुभपरिणाम तिनमें क्षीण पान किये हैं पापप्रकृतिनिके स्थिति अनुभाग जानें, बहुरि वधाया है शुभकर्मका. अनुभाग जानें, ऐसा होय अनिवृत्तिकरणपरिणामकी
३९६ प्राप्तिकार अनिवृत्तिवादरसांपरायनाम नवमां गुणस्थानकू चढिकरि तहां कपायनिका अष्टक जो अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण ताका सत्तामेंसूं नाशकरि फेरि नपुंसकवेदका नाशकार फेरि स्त्रीवेदका क्षयकरि बहुरि नोकपायका पदक हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा इनकू पुरुपवेदवि क्षेपणकरि क्षय करै । बहुरि पुरुपवेदकू क्रोधसंज्वलनमें क्षेपै । बहुरि क्रोधसंज्वलन मानसंज्वलनवि क्षेपै । बहुरि मानसंज्वलनकू मायासंज्वलनवि क्षेपै । बहुरि मायासंज्वलनकू लोभसंज्वलनवि क्षेपै। ऐसे संक्रमणविधानकारी अनुक्रमणते क्षयकार बादरकृष्टिका विभागकरि, लोभसंज्वलनकू सूक्ष्म कार, अर सूक्ष्मसांपरायनाम क्षपक गुणस्थान दशमांकू भोगिकरि, तहां समस्तमोहनीयकर्मकू मूलतें नाशकार, क्षीणकपायपणाकू पायकरि, उताऱ्या है मोहनीयकर्मका बोझ जामें तिस बारमा गुणस्थानका उपांत्य कहिये अंत्यसमय ताके पहलै समये निद्रा प्रचलानाम दोय प्रकृतिका क्षय कार, बहुरि पांच ज्ञानावरण च्यारि दर्शनावरण पांच अंतराय इन चौदहप्रकृतिनिका बारमा गुणस्थानके अंतसमये क्षयकरि, ताके अनन्तरही ज्ञानदर्शन है स्वभाव जाका ऐसा केवलनामा आत्माका पर्याय अचिंत्य है विभूतिका विशेष जामें ऐसी अवस्थाकू पावै है। ऐसे इहां तरेसठि प्रकृतिनिका ' सत्तामैसूं नाश 'कार केवलज्ञान उपजावै है। घातिकर्मकी । ४७। आयुकर्मकी । ३ । नामकर्मकी । १३ ॥ आगे शिष्य कहै है, जो, मोक्ष कैसै हेतुतें होय है अर ताका लक्षण कहा है। ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं- . : ,
॥ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ . याका अर्थ-- बंधका कारण जे मिथ्यात्व आदि तिनका अभाव अर निर्जरा इन दोऊनितें समस्त कर्मका अत्यंत अभाव होय, सो मोक्ष है । तहां मिथ्यादर्शनआदि जे बंधके कारण तिनके अभावतें तौ नवीन कर्मका बंध नाही होय है।