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वच
पान
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ऐसें सदा रही उत्पत्ति, सदाही विनाश नाहीं ठहरै है । जाते क्षणिककी सिद्धि न होय । सो ऐसें मानेगा तो अंतर्मुहूर्तस्थितिरूप भी ठहरैगा । सो अंतर्मुहूर्त ठहरिकरि नाश भया पीठे अन्य अंतर्मुहूर्त ठहरनेकू उत्पत्ति भई । ऐसें ।।
समान है । बहुरि वह कहै, जो, ऐसे है तौ संवर आदिपर्यंत ध्यानका काल क्यों न कहै । ताका उत्तर, जो, जैसा __ सर्वार्थ
जहां संभवै तैसा तहां कहिये । मनकी वृत्तिस्वरूप जो चिंताका निरोध एकध्येयवि अंतर्मुहूर्तशिवाय ठहरना संभवै सिदि
निका टिका
नाहीं । यह अनुभवगोचर है । मनकी वृत्तिके एकविपयतै अन्यविपयविर्षे उलटना देखिये है । ऐसे हीनसंहननवालाके अ ९/ चिंताका निरोध अल्पकाल देखि अर उत्तमसंहननवालेके अंतर्मुहुर्तकी संभावना करिये है। आगमप्रमाणकार भी यह सिद्ध
है । बहुरि अंतमुहर्तका स्वरूप आगमतें जानना ॥ । बहुरि इहां कोई कहै, जो, ज्ञान है सोही ध्यान है । ताकू कहिये, जो, ऐसें नाहीं है । ज्ञान है सो तो चलाचल| रूप है । ध्यान है सो ज्ञानका निश्चलपणा है । यातै ज्ञानतें याका लक्षण जुदा है । याहीतें ध्यानकू अधिकाररूपकार ताका स्वरूप कहन• अंतर्मुहूर्त कहनेते बहुतकालरूप दिवसादिकका निपेध है । जातें ऐसी शक्तिका अभाव है । बहुरि
सूत्रवि एकशब्द है ताका अर्थ प्रधानपणा भी होय है । तिस अर्थकी अपेक्षा इहां एक कहिये प्रधान जो ध्यान ३ करनेवाला पुरुष ताही वि चिंताका निरोध करै । बहुरि अग्रशब्दका भी अर्थ पुरुष होय है। ताकी अपेक्षा भी पुरुषवि
चिंताका निरोध कहिये अन्यध्येयकू छोडि आपविही ध्यानकी प्रवृत्ति होय है । ऐसें अनेकअर्थका वाची जो एकाग्रशब्द | सो सूत्रमें युक्त स्थाप्या है । इहां एकार्थ वचनही नाहीं ग्रहण करना । जो एकार्थ ऐसा वचन ग्रहण करिये तो " विचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः " इस सूत्रमें द्रव्यपर्यायवि पलटनेका अर्थ है । ताका निपेध आवै । तातें एकाग्रशब्दतें पलटनेका अर्थ विरोध्या न जाय है । ऐसें जानना ॥ । बहुरि जो चिंताका निरोध दिवसमासादि पर्यंत ठहरना कहिये तो वणे नाहीं । जाते बहुतकाल रहे इंद्रियनिकै पीडा उपजै है । बहुरि जो श्वासोच्वासके रोकनेकू ध्यान कहिये तो सांशरूपके तो शरीरका नाश होय मृत्यु होय जाय है । बहुरि जो अन्यवादी कहै, मंद मंद श्वासोश्वासका प्रचार करि रोकै तौ शरीरका पात न होय है, यामें पीडा भी नाही
होय है ॥ ताकू कहिये, जो, ऐसा नाहीं है । मंद श्वासोश्वास रोकनेका साधन करना तो ध्यानका साधन करना है । 21 जैसें आसनआदि साधिये है, तैसे यह भी है । ध्यान तो एकाग्रचिंतानिरोध होय सोही है ।, बहुरि जय आदिविर्षे
चित्तकी प्रवृत्ति रहैं है सो भी ध्यान नाहीं है । बहुरि ध्यानके साधनके उपाय गुप्त्यादिक पहलै कहेही, ते संवरके कारण भी हैं । अर ध्यानके भी उपाय है ॥