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सर्वार्थसिद्धि
टीका अ. ९
मुख है, भद्र इंद्र अग्र विप्र ए शब्द निपातसिद्ध हैं । अंग ऐसी धातु है, सो गतिअर्थ में हैं । ताका कर्मविषै तथा अधिकरणविषै र ऐसा प्रत्ययका विधान है । बहुरि चिंता मनकी वृत्तिकूं कहिये है । बहुरि अनियम जाकै क्रिया होय ताका नियमतें क्रियाका कर्तापणाविषै अवस्थान होय सो निरोध कहिये । इहां समास करे हैं, एक अग्र कहिये मुख जाकै होय सो तो एकाग्र कहिये । बहुरि चिंताका निरोध सो चिंतानिरोध कहिये । बहुरि एकाग्र सो ही चिंतानिरोध सो एकाग्रचितानिरोध कहिये । ऐसा एकाग्रचितानिरोध है सो ए काहे होय है ? आत्माकी सामर्थ्य के विशेषत होय है । जैसें दीपगकी शिखा निर्वातदेशविषै अंतरंग बहिरंग हेतुके वशर्तें निश्चल तिष्ठै है तैसें चिंताहू वीर्यातरायकर्मके क्षयोपशमके विशेषतैं तथा निराकुलप्रदेशविषै निश्चल तिष्ठै है । यातें अन्यचिंतानिरोधर्ते नानामुखपणाकी निवृत्ति कही । अथवा अग्रशब्द है सो अर्थपर्यायवाची है । जातैं याऊं कर्णसाधन करिये, तब अर्थपर्यायवाची होय है । एकपणा सोही अग्र सो एकाग्र कहिये । ऐसें एकत्वकी संख्याविशिष्ट अर्थ भया । तथा एकशब्दकूं प्रधानवाची लीजिये । तब एकाग्रविषै चिंतानिरोध कहिये । ऐसें अनेक अर्थ जे गौणभूत तिनविर्षे चिंतानिरोधका निपेध भया । तातैं कल्पनारोपित ध्यानका निषेध भया ॥
इहां तर्क, जो, अनेकवादीनिके सर्वपदार्थ एकानेकरूप मानिये है तार्ते अनेकरूपका निषेध कैसे होय १ एक अर्थविपैं ध्यान कैसे होय ? ताका समाधान, यह विनाविचाऱ्या तर्क है । एक अर्थी एकपर्यायके प्रधानपणाकार ध्यानका विषयपणा कहिये है । तहां द्रव्यकै अन्यपर्याय होतें भी गौणपणातें ध्यानके विषय नाहीं हैं, याहीतें एकशब्द संख्यावाचीका यहां ग्रहण है । फेरि तर्क, जो, ऐसें तौ कल्पनारोपितविषयविषै ध्यान भया । जातै पर्यायमात्र तौ वस्तु नाहीं, द्रव्यमात्र भी नाहीं हैं । द्रव्यपर्यायस्वरूप जात्यंतर वस्तु माना है । नयका विषय वस्तुका एकदेश है । जो नयका विषय सर्वदेश वस्तु मानिये तौ याकै विकलादेशपणाका विरोध आवै । ताका समाधान, जो, ऐसें कहनेवाला भी न्यायका वेत्ता नाहीं । जो, सर्वथा द्रव्यपर्यायस्वरूपका निषेधरूप पर्यायमात्र मानिय तौ अवस्तु होय । अर जहां द्रव्यपर्यायकी परस्पर सापेक्षा होय तहां तौ अवस्तुपणा है नाहीं । तातें नयका एकदेशविपय है तौ ताकूं अवस्तु न कहिये ||
बहुरि कोई कहै, स्वरूपका आलंबन सोही ध्यान है। सो यह भी युक्त नाहीं । तातैं सर्वथा अंशरहित वस्तुकं तो ध्यानध्येयपणा आवै नाहीं । कथंचित् अनेकरूप वस्तुकैही तिसतें अविरोध ध्यान होय है । अर्थातरभूत जो ध्येयवस्तु तिसविषै ध्यान प्रवत है । ऐसें आपतें जुदाही जो द्रव्यपरमाणु तथा भावपरमाणुको आलंबे है । बहुरि ऐसा नाहीं, जो, द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु
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