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टीका
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जिनेन्द्रका उपदेश्या आदि आहिंसालक्षण है, सत्यकू अधिकारकार प्रवर्ते हैं, विनय जाका मूल है, क्षमाका जामें बल है, ब्रह्मचर्य जाकार रक्षा है, उपशम कहिये कषायका अभाव जामें प्रधान है, नियति कहिये नियम त्याग निवृत्ति जाका || ५ स्वरूप है, निग्रंथपणाका जामें आलंबन है ऐसा जिनभगवानकरि धर्मस्वाख्यातत्व भलेप्रकार व्याख्यान किया है । याके सर्वार्थ
अलाभते यह जीव अनादित संसारवि भरमण करै है । पापकर्मके उदयतें उपज्या जो दुःख ताहि भोगता संता भरमै सिरि
निका है । बहार या धर्मके पाये अनेकप्रकार इन्द्रादिकपदकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षकी प्राप्ति नियमकार होय है । ऐसा चितवन म. १० करना सो धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । ऐसें याकू चिंतवते पुरुषके धर्मविर्षे अनुरागर्ते सदा उद्यम होय है याका व्याख्यान ३४८
ऐसा भी है । जो जीवके धर्म गुणस्थान जीवस्थान मार्गणास्थान चौदह चौदह कहै हैं, सो धर्मस्वाख्यातत्व काहिये भलेप्रकार आख्यातपणा है । तिनका चितवन करै । सो गुणस्थानके नाम तो पहले कहे ही थे । बहुरि जीवसभा चौदह भी पूर्व कहे थे। बहुरि मार्गणास्थान गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संझी, आहारक ए चौदह है, ते भी पूर्व कहे थ । तिनिपार गुणस्थान जीवस्थान आगममें कहे हैं, तैसे लगावणे । तिनका स्वरूप चिंतवन करते जीवके धर्मनिकी प्रवृत्ति नीकै जाणी जाय है । तातें यथार्थज्ञान होय है । निश्चयव्यवहाररूप धर्मका स्वरूप जानिये है ऐसे जानना । ऐसें अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षाके निकट उत्तमक्षमादिधर्मके | धारणते महान् संवर होय है । बहुरि धर्मके अरु परिपहनिकै मध्य अनुप्रेक्षा करनेतें ऐसा जनाया है, जो, यह अनुप्रेक्षा चितवन करनेवाला पुरुष धमनिकू तौ पाले है रक्षा करै है अर परीपहनिळू जीतनेका उत्साह करै है ॥ आगे पूछ है, ते परीषह कॉन हैं बहुरि तिनकू कॉनआर्थ सहिए है ऐर्से पूर्छ सूत्र कहे हैं
॥ मार्गाच्यवननिर्जराथं परिषोढव्याः परिषहाः ॥ ८॥ याका अर्थ- मार्ग कहिये संवर तातें न छूटनेके अर्थि तथा कर्मकी निर्जराके आर्थि परिषह सहने । इहां संवरका । प्रकरण है, तातें तिसका विशेषण मार्ग किया है । मार्ग संवर है, ताते च्युत न होनेके आर्थि बहुरि कर्मनिजराके आर्थि परीषह सहने कहै हैं । कष्ट आये मार्गत चिगै नाहीं, ताकी परीषह सहना साधन है । क्षुधा तृष्णा आदि बडे बडे कष्ट
सहे तब भगवानका भाष्या मार्ग न छूटते संते तैसें ते तिस मार्गर्ते प्रवर्तते कर्मका आवनेका द्वार जो आश्रव ताका । संवर करते संते आप उद्यमकार पचाया जो कर्मका फल ताकू भोगवते संते अनुक्रमते निरै है कर्म जिनके ते महामुनि : 1 मोक्ष• प्राप्त होय हैं ॥ आगें परिपहनिमित्त संज्ञासूत्र कहै हैं