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पान
|| मेरै अन्यपणा है, तो बाह्यपरिग्रहनिकी कहा कथा । ऐसें चिंतवन करते या आत्माके मनविर्षे समाधान होय है । शरीर
आदिविर्षे वांछा नाही उपजै है ताते यथार्थज्ञानभावनापूर्वक वैराग्य बधर्ते संत अंतरहित जो मोक्षका सुख, ताकी प्राप्ति ।
होय है । ऐसें अन्यत्वानुप्रेक्षा है ॥ सर्वार्थ- बहुरि यह शरीर है सो अत्यंत अशुचि दुर्गंध शुक्रशोणितकी योनि है,। अशुचिहीकरि वध्या है, विष्ठाका स्थानकी ज्यों सि दि अपवित्र है, उपरित चाममात्रकार अनादित है-ढक्या है, अति दुर्गध रसकरि झुरते जे नीझर तिनका बिल है, याके नि का भ ९ भाश्रय अन्यवस्तु होय ताकू भी अंगारेकी ज्यौं शीघ्रही तत्काल आपसारिखा अपवित्र करै है, स्नानसुगंधका लेपन धूपका
३४५ वास सुगंधमाला आदिकार भी याका अशुचिपणां दूरि न होय है । बहुरि थाकू सम्यग्दर्शनआदिकार भाईयै तौ जीवकै भत्यंत शुद्धता प्रगट करै है । ऐसें याका यथार्थस्वरूपका विचारना सो अशुचित्वानुप्रेक्षा है । याकू ऐसे विचारता पुरुपकै शरीरतें वैराग्य उपजै है । तब वैरागी हूवा संता संसारसमुद्र तिरिवेकू चित्त समाधानरूप करै है । याका विस्तार ऐसा, जो, अशुचिपणा दोय प्रकार है, लौकिक अलौकिक । तहां आत्मा कर्ममलकलंकळू धोयकरि अपने शुद्धस्वरूपवि तिष्ठै सो । तो अलौकिकशुचिपणा है । याके साधन सम्यग्दर्शनआदिक हैं । अथवा ए जिनमें पाईये ऐसे महामुनि हैं । अर तिन मुनिनिकार आश्रित जे निर्वाणक्षेत्र आदिक तीर्थ हैं ते ए शुद्धि आत्माकी प्राप्तिके उपाय हैं । तातै तिनकी भी नामशुद्धि कहिये । बहुरि लौकिक शुचिपणा लोक आठप्रकार मानें हैं । काल अग्नि पवन भस्म मृत्तिका गोमय जल ज्ञान । जाते
इनके निमित्तते ग्लानि मिटै है । सो ए आठहि प्रकार या शरीरकू पवित्र शुचि करनेकू समर्थ नाहीं । जातें यह शरीर अत्यंत १/ अशुचि है, याकी उत्पत्ति जहां होय सो भी अशुचि, यह उपजा सो भी अशुचि । देखो! कवलाहार मुखमें लेतेही श्लेष्मका ठिकाणा पायकरि तो तत्काल श्लेष्मते मिली द्रव है। ता पीछे पित्तके ठिकाणे जाय पचै तव अशुचिही होय है । पीछे पचिकार वातके ठिकाणे जाय वातकार भेदरूप किया हुवा खलरस भाव परिणवै है । इन सर्वेनिका भाजन भिप्ठाका ठिकाणाकी ज्यौं है । खलभाव तो मलमूत्रआदि विकाररूप होय है । अर रसभाव रुधिर मांस मेद मज्जा शुक्ररूप होय है । याका पवित्र करनेका उपाय कछू भी नाहीं है ॥
आश्रव संवर निर्जरा पहले कहे ही थे । ते इहां भी कहै हैं । सो इन” उपजै गुण तिनके दोप चितवनके अर्थि कहै हैं । सोही कहिये है । ए आश्रव हैं ते इस लोक अर परलोकवि नाश अर दुर्गतिके कारण हैं । महानदीके प्रवाहके वेगकी ज्यों महातीखण है । ते इंद्रिय कपाय अव्रत आदिक हैं । तहां प्रथम ती इन्द्रिय स्पर्शन आदिक है ।। ते जीवनिकू कप्टरूप समुद्रमें पटकै हैं । देखो ! स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत भया वनका हस्ती बहुत बलवान हैं, तो
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