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सर्वार्थ
सिद्धि टिका अ ९
॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्य्यानिषद्याशय्याक्रोशवध
याचनालाभरोगतृणस्पर्शम लसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥ ९ ॥
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याका अर्थ — क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य. अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन ए बाईस परीषह हैं । ए क्षुधा आदिक हैं ते वेदना पीडाका विशेष हैं ते बाईस हैं इनका सहना मोक्षके अर्थिन करना । सो कैसे सोही कहे हैं । ऐसें महामुनिके क्षुधाका जीतना कहिये । कैसे हैं ? प्रथम तौ भिक्षावृत्तिकार परके घर आहार ले हैं, तातें तौ भिक्षु ऐसा नाम है जिनका । बहुरि निर्दोष आहार हेरें हैं, दोपसहित जैसेंतैसें नाहीं ले है । बहुरि निर्दोष आहारका अलाभ होय तथा अंतरायादिकके कारणतैं थोरा मिलै तौ नाहीं मिटै है क्षुधाकी वेदना जिनकी । बहुरि अकाल अर अयोग्यक्षेत्रविषै आहार लेनेकी वांछा जिनकै नाहीं है । ऐसा नाही, जो, क्षुधा उपजै तिसही काल आहारकूं दौड़े तथा अयोग्यक्षेत्र में भी ले ले ऐसें नाहीं करे है । बहुरि आवश्यकक्रियाकूं किंचिन्मात्र भी घटावै नाहीं । क्षुधा निमित्त चित्त न लागै तब सामायिक आदि क्रिया जैसेंतैसे करे ऐसें नाही है । बहुरि स्वाध्याय अर ध्यानकी भावनाविषै तत्पर रहे हैं । बहुरि बहुतवार आप करै । तथा प्रायश्चित्तआदिके निमित्ततें करें ऐसें अनशन अवमोदर्य नीरसाहार तप तिनिकरि युक्त हैं । बहुरि इन तपनिके निमित्त क्षुधा तृषाकी ऐसी दाह उपजै है, जैसें ताते भांडेमें पड्या जो जलका बिंदू सो तत्काल सूकि जाय तैसैं आहार पाणी ले सो तत्काल सूकि जाय है । बहुरि उठी है क्षुधावेदना जिनकै तौ भिक्षाका अलाभ होय तौ ताकूं लाभतें भी अधिक मानें है, जो, हमारे यह भी अनशनतप भया सो बडा आनंद भया ऐसें माने है । क्षुधाका चिंतवन नाहीं है । धन्य है वे मुनि, जिनके ऐसे उज्वल परिणाम हैं। ऐसे मुनिकै क्षुधा जीतना सत्यार्थ है ॥ १ ॥
चलाय
बहुरि ऐसे मुनिराजकै तृषाका परीषह जीतना होय है, जो जलविषै स्नान अवगाहना छिडकनेके त्यागी हैं । बहुरि पक्षीकी ज्यौं अनियत है बैठना वसना जिनके । बहुरि पवनकारी वनके बसनेकरि रुक्ष सचिक्कण प्रकृतिविरुद्ध आहारके निमित्तकरि ग्रीष्मके आतापकरि पित्तज्वर अनशन आदि तपकरि इन कारणनिकरि उपजी जो शरीर इन्द्रियनिविषै दाह पीडा तौ जल पीवेनकी इच्छाप्रति नाहीं आदय है, ताका प्रतीकार इलाज ज्यां । तृषारूपी अग्निकी ज्वालाकूं धैर्यरूपी नवा घडाविर्षै भय जो शीतल सुगंध समाधिरूपी जल ताकरि शमन करे है बुझावे है । ऐसैं मुनिराजनिकै तृषाका सहना सराहिये है ॥ २॥
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निका पान
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