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________________ सर्वार्थ सिद्धि टीका எ आपके उपदेश बणै नाहीं आरंभरहित तहां सोवै बैठे, सो शयनासनशुद्धि है | बहुरि पृथ्वी आरंभ आदिकी जामें प्रेरणा नाहीं और कठोर निर्लज्ज आदि परकूं जातें पीडा होय ऐसा नाहीं अर व्रत शील आदिका उपदेश आदिकी जामें प्रधानता होय अर हितरूप मर्यादसहित मीठा मान आदरकरि सहित संयमीनिके योग्य ऐसा वचन प्रवर्ते, सो वाक्यशुद्धि है । याके आश्रय सर्वसंपदा है ॥ ऐसें संयमधर्म कह्या ॥ बहार कर्मके क्षयके अर्थ जो तप ले सो तप हैं । सो बारह प्रकार है सो आगें कहेंगे । बहुरि संयमीनिके योग्य ज्ञान आदिक देना सो त्याग है । बहुरि शरीरआदि परिग्रह विद्यमान रहें हैं तिनविपैं भी मेरा यऊ है ऐसा ममत्वभावका अभिप्राय नहीं होय, सो आकिंचन्य है । नाहीं है किंचन कहिये कछू भी जामें ताकूं अकिंचन कहिये, तिसका भाव अथवा कर्म होय सो आकिंचन्य ऐसा याका अर्थ है । बहारे पूर्वे स्त्रीनिके भोग किये थे तिनकं यादि न करना, स्त्रीनिकी कथाका श्रवण न करना, स्त्रीनिकी संगति जहां होय तहां शयन आसन न करना, ऐसें ब्रह्मचर्य परिपूर्ण ठहरे हैं । अथवा अपनी इच्छातें स्वच्छन्दप्रवृत्ति निवारणें गुरुके निकट रहना, सो ब्रह्मचर्य है । कहिये गुरु तिनिविषे चरण कहिये तिनके अनुसार प्रवर्तना ऐसा भी ब्रह्मचर्यका दशप्रकार धर्म हैं ॥ अर्थ होय है ॥ ऐसें इन भेदनिमें कोई गुप्तिसमितिविषै गर्भित हैं तो फेरि कहनेतें पुनरुक्तपणा नाहीं होहै । जातें इनकै संवर धारने की सामर्थ्य है । तातैं धर्म ऐसी संज्ञा सार्थिक है । अथवा गुप्त्यादिकी रक्षाके अर्थ ऐर्यापथिक, रात्रिक, दैवसिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमस्थान, अकाल ऐसें सात प्रकार अतिक्रमणका उपदेश है । तैसैंही उत्तमक्षमादिक दशप्रकार धर्म भी न्यारा उपदेश हैं । तातैं पुनरुक्त नाहीं है । बहुरि इनकै उत्तमविशेषण है सो या लोकसंबंधी दृष्टप्रयोजनके निषेधकै अर्थ है । बहुरि इन धर्मनिके गुणकी बहुरि इनके प्रतिपक्षी जे क्रोधआदि दोष तिनकी भावना ए धर्म संवरके कारण होय हैं । सोही कहिये है । तहां व्रतकी अर शीलकी रक्षा या लोक परलोकमें दुःखका न होना सर्व जीवविषै सन्मान सत्कार आदरका होना इत्यादिक क्षमातें गुण होय हैं । बहुरि धर्म अर्थ काम मोक्ष इनका नाश होना बहुरि प्राणनिका नाश होना ए क्रोधर्ते दोष होय हैं ॥ तहां कोई अन्यपुरुष आपके क्रोध उपजनेका कारण मिलाया तहां ऐसा चितवन करना, जो आपविषै दोष होय तिनका पैला निषेध करै । तब आप ऐसा विचार, जो, मोविर्षे ए दोप हैं, यह, कहा झूठ कहैं है ? ऐसा विचारि क्षमा करनी । बहार आपविषै दोष न होय तौ ऐसा विचारै, जो, ए कहे हैं ते दोष मोविर्षे नाहीं, पैला विना समझा अज्ञान बचनिका पान ३४० 1
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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