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________________ सर्वार्थसिद्धि टीका अ. ९ अवज्ञा करै, ताडन करै, शरीर के घातआदि करे ऐसें क्रोध उपजनेके कारण निकट होर्ते भी चित्त में क्रोधरूप कलुपता न उपजै, सो क्षमा है । बहुरि उत्तमजाति कुल रूप विज्ञान ऐश्वर्य शास्त्रादिकका ज्ञान लाभ वीर्य एते गुण आपमें पाईये हैं, तिनका मद न होना, पैलैं कोई अपमान किया होय तहां अभिमान न करना, सो मार्दव है । बहुरि काय वचन मनके योगनिकी सरलता मायाचारसूं रहित सो आर्जव हैं । बहुरि लोभतें आत्माका परिणाम मलिन रहै है ताका अभाव, उत्कृष्टपणें होय, सो पवित्रता है, सोही शौच है ॥ इहां कोई कहै, लोभकी उत्कृष्ट निवृत्ति तौ गुप्तिविषै भी है, तामें शौच आय गया, जुदा क्यों कह्या ! ताका समाधान, जो, गुप्तिविषै तौ मनका चलनेका निषेध है । बहुरि तिस गुप्तिविषै असमर्थ होय ताकै परके वस्तु लेनेका अभिप्रायका निषेध धर्मविषै जानना । बहुरि कहै, जो आकिंचन्यधर्मविषै आय जायगा शौच मति कहौ । ताकूं कहिये, आकिंचन्यविर्षे ममत्वका अभाव प्रधानकरि कया है । अपने शरीरविषै भी संस्कार आदिका निषेध हैं । वहुरि शौचवि च्यारिप्रकारके लोभकी निवृत्ति कही हैं । तहां लोभ च्यारिप्रकार कहा ? सो कहिये है, जीवनेका लोभ नीरोग रहनेका लोभ, इन्द्रिय वणी रहनेका लाभ, उपभोगवस्तुका लोभ ऐसें । सो यह भी अपना अर परका ऐसें च्यारिनिपार दोय दोय प्रकार जानि लेना ऐसें लोभका अभाव शौचमें जानना । बहुरि दिगंबर यति अर तिनके भक्त श्रावक आदि तिनवि समीचीन वचन बोलना सो सत्य है ॥ इहां कोई कहै, यह तौ भाषासमितिही है । ताकूं कहिये, समितिविषै तौ सर्वही लोकतें बोलनेका कार्य होय । तब हित मित वचन कहै । जो औरप्रकार वचन बोलै तौ राग अनर्थदंड आदि दोप उपजै । वहुरि सत्यधर्मविषै मुनिश्रावकनिहीर्तें शास्त्रज्ञान: सीखने आदिका कार्यनिमित्त बहुत भी परस्पर आलाप होय है । तामें दशप्रकार सत्य कहा है ताकी प्रवृत्ति होय है ऐसा भेद है । तिनके नाम जनपद, सम्मित, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, व्यवहार, संभावना, द्रव्य, भाव ऐसें हैं । इनका स्वरूप उदाहरणसहित गोमटसारतें योगमार्गणामें जानना है । वहुरि समितिविषै प्रवर्तते जे मुनि तिनकै समितिकी रक्षाके अर्थि प्राणीनिकी रक्षा अर इन्द्रियनिकी रागसहित विपयनिका परिहार, सो संयम हैं । ताका दोय भेद, अपहृतसंयम उपेक्षासयम । तहां अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम जघन्य भेदकार तीनप्रकार । तहां प्रासुक वसतिका आहार आदिमात्र है बाह्यसाधन जिनकै बहुरि स्वाधीन है ज्ञानचारित्रकी प्रवृत्ति जिनके तिनकै गमन आसन शयनादि क्रियाविषै जीव आय प्राप्त होय तौ तातें आप अन्यक्षेत्रमें टल जाय तिन जीवनि पीडा न दे, ताकेँ उत्कृष्ट अपहृत संयम है । बहुरि कोमल मयूरपिच्छिका आदि उपकरण तिस जीवकूं टाले सरकाय दे, ताके मध्यम अपहृतसंयम है | व घ निका पान ३३७
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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