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________________ वच पान अ.९ हा सिद्धगतिकुं प्राप्त होय, लोकके शिखिरविर्षे जाय तिष्ठै हैं, ते सिद्ध कहावै हैं । अनंतकाल आत्मिक आनंदमें लीन है। रहै हैं । फेरि संसारमें जिनका आगमन नाहीं । ऐसे गुणस्थाननिकी प्रवृत्ति जाननी । विशेप जान्या चाहै सो गोमटसारग्रंथतें जानूं ॥ सर्वार्थ- आगे, यह संवर कह्या, ताका कारणके कहनेकू सूत्र कहै हैसिदि टीका निका ॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥ २॥ याका अर्थ- कह्या जो संवर, सो गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीपहजय चारित्र इन छह भावनिकार होय है । ३३३ ।। तहां संसारके कारण जे प्रवृत्तिभाव तिनत आत्माकू गोपै राखै तिनकी प्रवृत्तिरूप न होने दे, सो गुप्ति है । बहुरि प्राणी१ निकी पीडाके परिहारके आर्थि भले प्रकार प्रवृत्ति करना, सो समिति है । बहुरि अपना इष्टस्थान जो सुखका स्थान । तामें धरै सो धर्म है । बहुरि शरीरआदिका स्वभावका वार बार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है । वहुरि क्षुधाआदिकी, १ वेदना उपजै ताकू कर्मकी निर्जराकेअर्थि सहै सो परिपह है, तिनका जीतना सो परिपहजय है । बहुरि चारित्रशब्दका अर्थ आदिसूत्रमें कहा है । ऐसें ए गुप्तिआदिक हैं तिनके संवरणक्रियाका साधकतमपणात करणरूप संवर है, ऐसा अधिकार किया है । बहुरि स ऐसा शब्द है सो गुप्त्यादिक साक्षात् संबंध करनेके अर्थि है । तहां ऐसा नियम जनाया है, सो यह संवर गुप्तिआदिकारही होय है, अन्य उपायकार नाही होय है । ऐसें कहनेकरि तीर्थनिविर्षे स्नान करना, अतिथिका भेषमात्र दीक्षा लेना, देवताकू आराधना, ताके अर्थि अपना मस्तक काटि चढावना इत्यादि प्रवृत्ति करै यहू संवर नाहीं होय है, ऐसा जनाया है । जाते राग द्वेष मोहकरि बांधे जे कर्म, तिनका अन्यप्रकार निवृत्ति होनेका अभावही है ॥ है आगें संवरका तथा निर्जराका कारण विशेपके जाननेकू सूत्र कहै हैं ॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥ याका अर्थ- तपकरि निर्जरा, होय है, वहुरि चकारतें संवर भी होय है, ऐसा जानना । तहां तप है सो धर्मके भेदनिमें गर्भित है, सो भी न्यारा कह्या है, सो संवर अर निर्जरा दोऊका कारण जनावनेके अर्थि कह्या है। अथवा सवरप्रति प्रधानपणां जनावनेके अर्थि है । इहां तर्क, जो, तप तौ, देवेन्द्रादिपदवीकी प्राप्तिका कारण मानिये है,
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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