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________________ . याते अभ्युदयका अंग है, सो निर्जराका अंग कैसे होय ? ताका समाधान, जो, यहू दोष इहां नाहीं है । एक कारणकरि अनेक कार्य होते देखिये हैं । जैसैं अग्नि एक है तौ याते वस्तूका पचना नामा कार्य भी होय है बहुरि वस्तूकू भस्म करि देना नामा कार्य भी होय है। तैसें तपत अभ्युदय भी होय है अर कर्मका भी नाश होय है । यामें कहा सवा विरोध है ? इहां अन्य भी दृष्टान्त है, जैसे किसानकै खेती बोहनेकी क्रियाका फल धान्य उपजाना सो प्रधान है। अरावचटोका पराल घास चारा उपजना गौण फल है । तैसें मुनिनिके तपक्रियाका फल कर्मका नाश होना तो प्रधान है, अर देवेन्द्रादिकपद उपजावना गौण फल है। ऐसा जानना ॥ आगें संवरके कारणनिविर्षे आदिमें कह्या जो गुप्ति ताका स्वरूपके ३३४ जाननेके अर्थि सूत्र कहै हैं । सिद्धि नि का पान म. १ ॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥४॥ याका अर्थ- काय वचन मनकी क्रियारूप जो योग तिनका सम्यक् प्रकार रोकना बसि करना, सो गुप्ति है। तहां योगका स्वरूप तो पहले कह्या सोही जानना । कायवाझनःकर्म योगः इस सूत्रवि कह्या सो तिस योगकी स्वेच्छाप्रवृत्तिका मेटना, सो निग्रह कहिये । वहुरि सम्यक्पद है सो विषयसुखकी अभिलाषाके आर्थिं योगनिकी प्रवृत्तिका निग्रह करै तौ गुप्ति नाहीं, ऐसें जनावनेके अर्थि है। यातें ऐसा अर्थ भया, जो, सम्यक् विशेषणकरि विशिष्ट अर जामें अधिक संक्लेश न उपजै ऐसा जो कायआदियोगका निरोध ताके होते जो योगनिकी स्वेच्छा प्रवृत्तितें कर्मका आश्रव । होय था ताका संवर होय है ऐसा प्रगट निश्चय करना । सो यहु गुप्ति तीनिप्रकार है, कायगुप्ति, वचनगुप्ति, मनोगुप्ति । ऐसें । इहां विशेष, इहां सम्यक् विशेषणका तो यह विशेष, जो, गुप्तिका सत्कार न चाहै, बहुरि लोकतें पूजा न चाहै, महामुनि बडे ध्यानी हैं ऐसी लोकविर्षे प्रसिद्धता न चाहै, तथा इस लोक परलोक संबंधी विषयअभिलाप न करै । बहुरि कायवचनमनकी स्वेच्छाप्रवृत्तिका विशेष ऐसा, जो, कायकरि भूमिविर्षे चलना होय तव विना देख्या विनाप्रतिTo लेख्या चलै तब कर्मका आश्रव होय । बहुरि वस्तुका उठावणा धरणा होय सो बहुरि बैठना होय सोवना होय तिसके निमित्ततें कर्मका आश्रव होय । बहुरि वचन जैसे तैसें बोले, तथा मनविर्षे रागद्वेष प्रवत, विपयनिकी वांछा प्रवत, ताके निमित्ततें कर्म आश्रवै सो महामुनि गुप्तिरूप रहै तिनके ऐसे कर्मका आश्रव रुकै है, तातें संवर होय है ॥ आगे जो मुनि गुप्तिरूप रहनेविर्षे असमर्थ होय आहारविहार उपदेशादिक्रियावि प्रवत, तिनके निदोपप्रवृत्ति जैसे होय ।। 12 ताके प्रगट करने• सूत्र कहें हैं
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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