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________________ मत्तत कर्म // २३५ ॥ ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥ ५ ॥ याका अर्थ- ईर्या भाषा एपणा आदाननिक्षेप उत्सर्ग ए पांच समिति हैं, ते संवरके कारण हैं । इहां सम्यक्सर्वार्थ-18| पदकी अनुवृत्ति लेणी, यात सम्यकईयों इत्यादि पांचनिक लगाय लेणी । तहां जान्या है जीवनिके स्थान योनि आदिक |BIवच भेदकी विधि जानें ऐसा जो मुनि ताके यत्नतें चलना, यत्नतें बोलना, यत्नतें शुद्ध निर्दोप आहार लेणा, यत्नतें उपकर- नका भ९ णादि उठावना धरना, यत्नतें मलमूत्रआदि क्षेपणा ऐसे प्रवृत्तिरूप पांच समिति हैं, ते प्राणिनिकी पीडाका परिहारके आर्थि । A होय हैं । ऐसें प्रवर्ते अन्यप्राणीनिकू बाधा नाहीं होय है । तथा सम्यक् प्रवर्तमानके असंयमपरिणामके निमित्ततें कर्म । KI आश्रवरूप होय थे तिसका अभाव होय है तब संवर होय है ॥ | इहां विशेषविधि लिखिये है । तहां मुनि जीवस्थाननिके जाननहारे हैं । ते जीवस्थान संक्षेपकार चौदह हैं । एके-10 न्द्रिय सूक्ष्मवादरकार दोयप्रकार बेन्द्रिय, त्रींद्रिय, चौइन्द्रिय ए विकलत्रय कहिये । बहुरि पंचइंद्रिय संज्ञी असंज्ञी दोय भेद दश ऐसें सात भये । ते पर्याप्त अपर्याप्त भेदकरि चौदह होय हैं । बहुरि अठ्याणवै कहे हैं । बहुरि च्यारिसे छह कहे हैं। बहुरि इनके उपजनेके ठिकाणेकू योनि कहिये । तथा कुलानिके भेद अनेक हैं । तिनकू नानि मुनि तिनकी रक्षानिमित्त ।। समितिरूप प्रवते हैं। तहां गमन करैं तब सूर्यके उदयका प्रकाशविर्षे नेत्रनितें जूदा प्रमाण भूमिकू नीक निहारि जिस मार्ग मनुष्यादि पहले गये होय, भूमि मर्दली गयी होय, तिस मार्गविचे मंदमंद पगनिकू धरते गमनसिवाय अन्यवि ।। । मन न चलावतें शरीरके अंगनिकू संकोचरूप राखते गमन करें हैं, तिनकें ईर्यासमिति होय है ॥ बहुरि वचन कहै सो हित मित असंदिग्ध कहै । तहां जामें मोक्षपद पावनेका प्रधानफल होय, सो तौ हित | कहिये । बहुरि अनर्थक बहुतप्रलाप जामें नाही होय, सो मित कहिये। बहुरि जाके अक्षर स्पष्ट होय तथा व्यक्त होय | सो असंदिग्ध कहिये । याका विस्तार मिथ्यावचन, ईषासहितवचन, परकू आप्रिय वचन, परका मर्म भेदनेका वचन, 18 जामें सार थोडा होय ऐसा वचन, संदेहरूप वचन, जात परके भ्रम उपजै ऐसा वचन, कषायसहित वचन, परका परि हास सहित वचन, अयुक्त वचन, असभ्य वचन, गाली आदिक तथा कठोर वचन, अधर्मका वचन, देशकालयोग्य नाहीं । का ऐसा वचन, अतिस्तुतिवचन इत्यादि वचनके दोष हैं; तिनते रहित मुनि वचन बोले हैं, ताकै भाषासमिति होय है ॥ व बहुरि आहारके उद्गम आदि दोष तिनका वर्जना सो एषणासमिति है । सो गुणरूप रत्ननिका ले चलनवाली जो । ऐसा वचन अन, अयुक्त वचन, असभ्य वचन, जात परके भ्रम उपाय वचन, परका मम व्यक्त होय ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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