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सर्वार्थ
सिद्धि
टी का
भ. ९
शरीररूप गाडी ताहि समाधिरूप नगर पहुंचावना है । तातै घृतादिका वांगकी ज्यों आहार दे है । बहुरि उदर अग्निरूप दाहका रोग ताके बुझावनेकूं औषधीकी ज्यौं बुरी भलीका स्वाद न लेते देशकालसामर्थ्यकूं जाणि पवित्र आहार ले हैं । तामें उद्गम उत्पादन एषणा प्रमाण अंगार धूम आदि भेदसहित छियालीस दोष टलें नवकोटि शुद्ध आहार करें । छियालीस दोष वतीस अंतराय चौदह मल आदिका वर्णन आचार वृत्तिग्रंथ के पिंडशुद्धि अधिकारमें है, तहांतें जानना । ऐसा एपणासमितिका विशेष है । बहुरि आदाननिक्षेपण उत्सर्ग समिति पूर्वे कहीही है ॥
इहां कोई कहै, यह समिति तौ वचनकायकी गुप्ति है । ताकूं कहिये, ऐसा नाहीं । गुप्तिविषै तौ कालकी मर्यादा करि सर्वक्रियाकी निवृत्ति करै है । बहुरि समितिविषै कल्याणरूप कार्यनिविर्षे प्रवृत्ति होय है । बहुरि इहां कोई कहे, मुनि पात्रविना हस्तविषै ले आहार करें हैं तहां आहार गिरै पडै तामें जीवहिंसा दीखे है, तहां एपणासमितिका अभाव संवरका भी अभाव आवे है । ताका समाधान, जो, पात्र राखें तौ परिग्रहका दोष आवै है । तिलकी रक्षा करनी पडै है । अर कपाल आदि लिये फिरै तौ यामें दीनता आवे है । भाजन गृहस्थतें मांगे तो मिलै न मिलै । बहुरि ताके प्रक्षालनके आदिके विधानमें बडा आरंभ है । बहुरि आपके पात्र में भोजन लेय अन्य जायगा जाय खानेमें आशा लार लगी रहै है । बहुरि गृहस्थ अवस्थामें सुन्दर पात्रमें भोजन करें थे, अब जैसेंतैसेंमें खाय तब बडी दीनता आवै तार्ते अपनें हस्तरूप पात्रविर्षैही आहार करना, यामें कछू भी दोष नाहीं उपजै है, स्वाधीन है, वाधारहित है । निराबाध देशविषै खडा रहकार भोजनकूं परखिकरि निश्चल होय भोजन करते किंचिन्मात्रही दोप लागे नाहीं है, ऐसें जानना ॥
आर्गे तीसरा संवरका कारण जो धर्म, ताके भेद जाननेकूं सूत्र कहै हैं
॥ उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौच सँयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६ ॥
याका अर्थ — उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम, उत्तमतप उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य, उत्तमब्रह्मचर्य ए दश धर्मके भेद हैं, तिनतैं संवर होय है, इहां शिष्य पूछे है, जो ए धर्म कौन अर्थि कहे हैं ? ऐसें पूछें ताका प्रयोजन कहै हैं— पहलें तौ गुप्ति कही सो तो सर्वप्रवृत्तिके रोकनेकूं कही । पीछें तिस गुप्तिवि असमर्थ होय तब प्रवृत्ति करी चाहिये । तातें भलेप्रकार यत्नतें प्रवर्तनेके अर्थ समिति कही । बहुरि यह दशप्रकारका धर्मका कथन है, सो, जे मुनि समितिविर्षै प्रवर्तै तिनकूं प्रमादके परिहारके अर्थि कहा है, ऐसें जानना । तहां शरीरकी स्थितिका कारण जो आहार ताके अर्थ परघर जाता जो सुनि तिनकूं दुष्टजन देखिकरि दुष्ट वचन कहें, उपहास करे,
बध
निका पान
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