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पान ३४१
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कहै है, अज्ञानीतें कहां क्रोध ? ऎसें विचारि क्षमा करनी । बहुरि अज्ञानीका बालककासा स्वभाव विचारनां । कोई 18 अज्ञानी परोक्ष आपकू दुर्वचन कहै तब विचारणा, जो, यह परोक्ष कहै है, अज्ञानी तो प्रत्यक्ष भी कहै है, सो मोकू
प्रत्यक्ष न कह्या एही भला भई । बहुरि प्रत्यक्ष भी कहै तो ऐसी विचारणी, जो, अज्ञानी तो मेरा ताडन भी करै यह
दुर्वचनही कहै है, सो ही भला है । बहुरि ताडै तौ ऐसा विचारणा, जो, अज्ञानी तो प्राणघात भी करै है, यह ताडै ही सिद्धि
है, प्राणघात न किया, सो भला भई । बहुरि प्राणघात भी करै तौ ऐसा विचारै, जो, अज्ञानी तौ धर्मविध्वंस भी करै, टीका । यह प्राणघात करै है, धर्मविध्वंस न किया, यह भला ही भई । बहुरि विचारै, जो, यह मेराही अपराध है, जो, पूर्व कर्म। ॥ ९ बांधे थे तिनका यह दुर्वचनादिक सुनना फल है, पैला तो निमित्तमात्र है, ऐसा चितवन करना ॥
बहार जो मार्दवधर्मकरि युक्त होय तापरि गुरु अनुग्रह करै, साधु भला मानें, तब सम्यग्ज्ञान आदिका पात्र होय तातें स्वर्गमोक्षफलकी प्राप्ति होय यह मार्दवके गुण हैं । अर मानकरि मैला मन होय तामें व्रत शील आदि गुण न
तिष्ठै । साधुपुरुप ताकू छोडि दे । यह मान सर्व आपदाका मूल है । यह मानकषायके दोष है । बहुरि मायाचाररहित 1 सरल हृदय जाका होय तावि तिष्टै मायाचारवालेका गुण आश्रय न करै निंद्यगति पावै । ऐसे आर्जवके गुण हैं,
मायाके दोष है ॥ बहुरि, शौचधर्मयुक्त पुरुषका सर्वही सन्मान करै । सर्व विश्वास करै । सर्वगुण जामें तिष्ठै । लोभीके हृदयवि गुण अवकाश न पावै । परलोकमें तथा इसलोकमें बडी आपदा पावै । ऐसें शौचके गुण लोभके दोष हैं।
बहुरि सत्यवचन कहनेवालेविर्षे सर्व गुण तिष्ठै सर्व संपदा तिष्ठै झूठ बोले ताकी बंधुजन भी अवज्ञा करै । मित्र भी ताकं छोडि दें । जीभछेदन सर्वस्वहरण आदि आपदा पावै । ए सत्यके गुण असत्यके दोष हैं । ____बहुरि संयम आत्माका हित है । जाक संयम होय, सो लोककार पूज्य होय परलोककी कहा कहणी? असंयमी प्राणीनिके घात विषयनिके रागकार अशुभकर्म बांधै । ऐसें संयमके गुण असंयमके दोष हैं ॥ बहुरि तप है सो सर्वप्रयोजनकी सिद्धि करनहारा है। तपहीत ऋद्धि उपजै है । तपस्वीनिके रहनके क्षेत्र भी तीर्थ होय हैं। जाकै तप नाहीं सो तृणतें भी | छोटा है । जाकू सर्वगुण छोडि दे है । तपविना संसारतें भी नाहीं छूटै है । ऐसें तपके गुण तपरहितविर्षे दोष हैं ॥ परिग्रहका त्याग दान है । सो पुरुषका हित है । परिग्रहका त्यागवाला सदा निर्वेद रहै है । मन जाका उज्वल रहै है। पुण्यका निधान है । परिग्रहकी आशा है सो बलवान है, सर्वदोष उपजनेकी खानि है, जातें तृप्ति नाहीं होय है। जैसे समुद्र जलतें तृप्त नाहीं होय, तैसें तृप्त नाहीं । इस आशारूपी खाडाकू कौन भार सकै ? जामें सर्व वस्तु क्षेपिये तो रीतीही रहै । ऐसें त्यागके गुण तृष्णाके दोष हैं ॥ बहुरि जाके शरीर आदिके विर्षे भमत्व नाहीं होय सो परमसुखकू पावै है । ।