________________
मावच
निका पान
अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इन तीनि गुणस्थाननिमें तिष्ठै हैं तहां अपूर्वकरणके आदिविर्षे संख्यातभागवि 16)
दोय प्रकृति निद्रानिद्रा प्रचला ए बंध है । ताके आगे संख्यातभागविर्षे तीस पकृति बंधे हैं, तिनके नाम देवगति, . पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियक आहारक तैजस कार्मण ए च्यारि शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियक आह पर्वार्थ गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उछ्वास प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, से द्धि
प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निमोण, तीर्थकर ए तीस । बहुरि तिसही अपूर्वकरणके अंतके समयवि १.९, हास्य रति भय जुगुप्सा ए च्यारि प्रकृतिबंध हैं । सो ए तहां संबंधी तीव्रकषायके निमित्ततें बंधै हैं । तातें तिस
|३३० १ तिस भावसंबंधी कपायके अभाव होते तिनका तिस भावतें उपार बंधका अभाव होय है । तहां संवर भया ।
बहुरि अनिवृत्तिबादरसांपरायके आदिसमयतें लगाय संख्यातभागविर्षे पुरुषवेद, क्रोध संज्वलन ए दोय बंध होय हैं। १ ताके उपरि बाकी रहे जे संख्यातभाग तिनविर्षे मान माया ए दोय बंध है । बहुरि तिसहीके अंतके समयविर्षे लोभ संज्वलन
बंधै है ऐसे ए पांच प्रकृति मध्यमकषायके निमित्ततें बंध होय है । सो तिस कषायके अभाव होते कहे तिस भागके उपरि तिनका संवर होय है । बहुरि सूक्ष्मसापरायविर्षे सूक्ष्मलोभकषाय पाईये है, याकू मंद भी कहिये, याके निमित्ततें पांच ज्ञानावरण, च्यारि दर्शनावरण, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, पंच अंतराय इन सोलह प्रकृतिका आश्रव होय है । सो तिस कपायका अभाव होते । उपशांतकषायादिकवि तिनका बंध नाहीं होय हैं । बहुारी केवल योगहीके निमित्ततें सातावेदनीयका आश्रव उपशान्तकपाय || क्षीणकषाय सयोगकेवलीकै होय है सो आगें योगके अभावतें अयोगकेवलीकै तिसका भी बंध नाहीं हैं ॥
इहां कोई पूछे है, गुणस्थाननिके क्रमकार संवर कह्या, सो गुणस्थान कहा है ? तहां कहिये, जो, इनका स्वरूप विशेषताकरि गोमटसारग्रंथमें लिख्या है, तहांतें जानूं । कछु संक्षेप प्रयोजन इनका लिखिये है । ए गुणस्थान जीवके 10 सामान्यपरिणाम हैं, जातें इनका नाम अर्थ जो गुण कहिये जीवके गुण तिनके स्थान कहिये ठिकाणे सो गुणस्थान हैं, | यह तो सामान्यसंज्ञा । बहुरि विशेषसंज्ञा मोहकर्मके उदयआदिके विशेषत तथा योगर्ते भई है। तहां मिथ्यादृष्टि ऐसा तो |
अनादिमिथ्यात्व नामा कर्म इस जीवकें पाईये है ताके उदयतें तत्वार्थनिका अश्रद्धानरूप परिणाम होय है । सो दोयप्रकार १ है, एक तौ नैसर्गिक है, तातें तो अनादिहीत अपना परका तथा हितअहितका यथार्थ स्वरूप भूलि रह्या है । जो पर्याय आवै है, ताहीकू अपना स्वरूप मानि हिताहितकू नाहीं जानि प्रवर्ते है । बहुरि दूजा परोपदेशतें प्रवत है, तातै
जैसा उपदेश दाता- मिलै हितअहितका तथा आत्माका स्वरूप जैसा बतावै ताहीकू सत्यार्थ जानि मिथ्यात्वके उदयतें तथा 1 अनंतानुबंधी कपायके उदयतॆ तिसका पक्ष दृढ कार प्रवतें, जिनेश्वरकी आज्ञा जाननेवालेके उपदेशका श्रद्धानविना :