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________________ सर्वार्थ सिद्धि टि का भ ९ यथार्थमार्ग बाह्य प्रवर्ते ऐसे दोयप्रकार परिणाम जाके होय सो मिथ्यादृष्टि जीव है । सो इसके दोय भेद हैं । जो अनादिहीतें जानें सम्यक्त्व पाया नाहीं सो तो अनादिमिथ्यादृष्टि है ॥ बहुरि सम्यक्त्व पाये फिर मिथ्यात्वके उदयतें मिथ्यादृष्टि होय सो सादिमिथ्यादृष्टि है । सो सम्यक्त्व पावनेका विधान ऐसें है, जो, जब काललब्धि आवै तव मिथ्यात्वकर्मका तौ अनुभाग मंद उदयरूप होय अर बाह्य सर्वज्ञ वीतराग जिनेश्वरका यथार्थमार्गके उपदेशका निमित्त मिले वीतरागकी मुद्रा निर्ग्रथगुरुका दर्शन तथा जिनेंद्र के कल्याणक आदिकी महिमाका दर्शन श्रवण प्रभावनाअंग अतिशयचमत्कारका देखना पूर्वभवका स्मरण होना इत्यादिक निमित्त मिले तब यथार्थतत्वार्थविषै रुचिरूप उत्साह ऐसा वधै, जो, आगे कहे हूवा नाहीं । ऐसें उत्साह में तीनि करणका आरंभ होय है । तिनके नाम अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ऐसें । सो इनका आरंभ कैसे जीवकै होय है सो कहिये है । शुभपरिणामनिके सन्मुख होय संज्ञीपंचेंद्रिय पर्याप्तक होय साकार उपयोगसहित होय अंतर्मुहूर्तपर्यंत समयसमय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वर्द्धमान होय एकयोगका आलंबनसहित होय अतिमंदकषायरूप परिणया होय तीनि वेदमेंसूं एकवेदके परिणाम संक्लेशरहित होय विशुद्धता के बलतें कर्मकी स्थितिकूं घटावता संता अशुभप्रकृतिनिके अनुभागबंधकूं हीन करता संता शुभप्रकृतिनिके अनुभागबंधकूं वधावता संता होय ताके करणनिका प्रारंभ होय है । इन तीनूंही करणनिका काल अंतर्मुहूर्त का जुदाजुदा जानूं । इनका विशेषवर्णन गोमटसारतें जानना ॥ तहां अनिवृत्तिकरणके अंतके समय कै लगताही अनादिमिथ्यादृष्टि तौ मिथ्यात्व अरु अनंतानुबंधिचतुष्क इन पांच प्रकृतिनिका उपशमकरि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकं ग्रहण करे है । तहां सत्ता में तिष्ठता जो मिथ्यात्वका उदय ताका अनुभाग घटाय तीनि भाग कर है । केता एक द्रव्य तौ मिथ्यात्वरूपही रहै, अर केताएककूं सम्यद्मिथ्यात्वरूप करै, केता एककूं सम्यक्त्वप्रकृतिरूप करै, पीछे तहां अंतर्मुहूर्तकाल भोगिकरिकै तौ सम्वत्वप्रकृतिका उदय आव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी होयकै सम्यग्मिथ्यात्वके उदय आवनेतें सम्यङमिथ्यादृष्टि होयकै पहले अनंतानुबंधीका उदय आवनेतैं सासादनसम्यग्दृष्टि होयकै मिथ्यात्वका उदय आवनेतें मिध्यादृष्टि होय, ऐसें अनादिमिध्यादृष्टिकी व्यवस्था है ॥ बहारी सादिमिथ्यादृष्टि होय सो भी ऐसैंही तीनूं करणनिका प्रारंभ कार सम्यक्त्वकूं परसै है । विशेष इतना, जो, याकै दर्शनमोहकी तीनि प्रकृतिका सत्व होय है । सो सात प्रकृतिका उपशम करि सम्यक्त्व पावै है । ऐसें अनंतानुबंधीका उदय मिथ्यात्वके पहले आवै सो सम्यक्त्वकी विराधनासहित भया । ए जघन्य एकसमय कृष्ट छह आवलीपर्यंत बीचमें रहे, तेतैं सासादनगुणस्थान नाम पावै है । याके अनंतर मिथ्यात्वका अवश्य उदय आवै है, तब मिथ्यादृष्टि होय है ! बहुरि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयतें सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होय है । याका नाम मिश्र भी व घ नि का पान ३३१
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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