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सर्वार्थ
वचनिका पान | ३२०
सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, त्रीन्द्रियपर्याप्तके पचास सागरके सात भाग कीजे तामें तीनि भाग, चतुरिन्द्रियके सौ सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके एक हजार सागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, बहुरि अपर्याप्तकै संज्ञी पंचेन्द्रियकै तौ अंतःकोडाकोडी सागरकी जानना अर एकेन्द्रियादिककै पूर्वोक्त भाग पल्यके असंख्यातवां भाग कार हीन जानने । बंधके प्रथम समयतें लगाय जेते काल अवस्थान रहै सो स्थितिबंध जानना ॥ आगे, मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थितिके जाननेकू सूत्र कहै हैं
॥सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ याका अर्थ- मोहनीय कर्मकी स्थिति उत्कृष्ट सत्तार कोडाकोडी सागरकी है। इहां कोडाकोडी सागर उत्कृष्टकी पहले सूत्रतें अनुवृत्ति लेणी । यह भी स्थिति मिथ्यादृष्टि संज्ञी पर्याप्तकै बंधै है । अन्यकै आगमतें जानना ॥ आगें नाम गोत्रकी उत्कृष्टस्थिति जानने• सूत्र कहै हैं
॥ विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ याका अर्थ- नामकर्म अर गोत्रकर्मकी उत्क्रप्ट स्थिति वीस कोडाकोडी सागरकी है। इहां भी उत्कृष्ट कोडाकोडी सागरोपमकी अनुवृत्ति है। यह भी उत्कृष्ट स्थिति संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त बंधै है, अन्य आगमतें जाननी ॥ ___ आगें आयुकर्मकी उत्कृष्टस्थिति कहने• सूत्र कहै हैं-- .
॥त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७॥ याका अर्थ- आयुकर्मकी स्थिति उत्कृष्ट तेतीस सागरकी है । इहां उत्कृष्टकीही अनुवृत्ति है । इहां भी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकही बंधै है, अन्यकै आगमतें जाननी ॥
आगें, उत्कृष्टस्थिति तो कही, अब जघन्य स्थिति कहनी है, तहां पांचकर्मकी तो जघन्यस्थिति समान है, सो न्यारी कहसी, अर तीनि कर्मकी स्थितिमें विशेष है, सो पहली कहैं हैं । तहां दोय सूत्र हैं--
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