________________
३१९
॥ उच्चैर्नीचैश्च ॥ १२॥ याका अर्थ- उच्चगोत्र नीचगोत्र ये दोय गोत्रकर्मकी प्रकृति हैं। तहां गोत्र दोय प्रकार हैं उच्चगोत्र नीचगोत्र । ... तहां जाके उदयतें लोकपूजितकुलविर्षे जन्म होय, सो उच्चगोत्र है । बहरि तिसतै विपरीति निंद्यकुलमें जन्मका कारण सिनि होय, सो नीचगोत्र है ॥
निका आगे आठमां अंतरायकर्मकी उत्तरप्रकृति कहनकू सूत्र कहै है
पान ॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३॥ याका अर्थ-दान लाभ भोग उपभोग वीर्य इन पांचनिका विघ्न करनेवाली अंतरायकी पांच प्रकृति हैं। तहां अंतराय करनेकी अपेक्षा भेद कहे हैं । दानका अंतराय लाभका अंतराय इत्यादि । जाके उदयतें देनेकी इच्छा करै तौ दीया न जाय, सो दानान्तराय है । लेनेकी इच्छा होय सो पावै नाहीं सो लाभांतराय है । भोगनेकी इच्छा होय भोगने पावै नाहीं, सो भोगांतराय है । उपभोग करनेकी इच्छा होय उपभोग पाव नाहीं, सो उपभोगान्तराय है। कोई कार्यका उत्साह करै उत्साहकी सामर्थ्य न होय सो वीर्यातराय है। ऐसे ये अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृति जानना । ऐसें प्रकृतिबंधके भेद तो कहे । अब स्थितिबंधके भेद कहने हैं, सो स्थिति दोयप्रकार है, उत्कृष्ट जघन्य । तहां जिन प्रकृतिनिकी उत्कृष्टस्थिति समान है, ताका निर्देशके अर्थि सूत्र कहै हैं
आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥ १४ ॥ ___ याका अर्थ- आदितै कहे जे ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय ए तीनि बहुरि अंतराय इन च्यारि कर्मनिकी उत्कृष्ट स्थिति तिस कोडाकोडी सागरकी बंधै है । इहां आदितः ऐसा शब्द तौ मध्यके तथा अंतके न लेने इसवास्ते कया है। अर अंतरायका ग्रहण न्यारा है ही। बहुरि सागरोपमका पहले स्वरूप कह्या ही था । बहुरि कोडिकोडिक्रू कोटीकोटी कहिये।। बहुरि परा कहनेतें उत्कृष्ट जानना । इहां ऐसा अर्थ भया, जो, ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय अंतराय इन च्यारिनिकी | उत्कृष्टस्थिति तीस कोडाकोडी सागरकी है । सो यह मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवकै बंध होय है, अन्य जीवनिके आगमतें जानना । तहां एकेन्द्रिय पर्याप्तके एकसागरके सात भाग कीजै तामें तीनि भाग, द्वीन्द्रियपर्याप्तके पचास