________________
*.
.
सर्वार्थ
सिद्धि
दीका
अ. ८
॥ पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ५॥ याका अर्थ- मूलप्रकृति आठ कहीं, तिनके भेद पांच नव दोय अठाईस च्यारि बयालीस दोय पांच ए यथाक्रमतें जानने । इहां तर्क, जो, सूत्रमें द्वितीयका ग्रहण करना था, जाते उत्तर प्रकृतिबंध दूसरा है । आचार्य कहै हैं जो, वचपारिशेष्यन्यायतें दूसराका ग्रहण सिद्ध होय है । दोयभेदमें एकका नाम कहै, तब दूसरा विना नाम कहेही जानिये ऐसैं नि का
पान | तात सूत्रमें द्वितीयका ग्रहण न करना । आदिका मूलप्रकृतिबंध आठभेदरूप कह्या, तातें अवशेप बाकी उत्तरप्रकृतिबंधकीही
३१० विधि है ऐसे जानि लेना । बहुरि सूत्रमें भेदशब्द है सो पांच आदिकी संख्यातें जोडना । तहां पांच भेद ज्ञानावरणके नवभेद दर्शनावरणके, दोय भेद वेदनीयके अठाईस भेद मोहनीयके, च्यारि भेद आयुके बयालीस भेद नामके, दोय भेद | गोत्रके, पांच भेद अंतरायके ऐसे जानना ॥ आगें पूछ है, जो, ज्ञानावरणके पाच भेद कहे, ते कौन हैं सो कहौ, ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥ ६ ॥ ___ याका अर्थ- मति श्रुति अवधि मनःपर्यय केवल ए पांच ज्ञान हैं, तिनका आवरण कर सो पांच भेद ज्ञानावरणके हैं। तहां मत्यादिज्ञान तौ पूर्वं कहे ते लेणे, तिनका आवरणते आवरणका भेद होय है, ऐसें ज्ञानावरणकमका पाच | उत्तरप्रकृति जाननी । इहां तर्क करै हैं, जो, अभव्यजीवके मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञानकी शक्ति है कि नाहीं है ? जो शक्ति है तौ ताकै अभव्यपणाका अभाव है। बहुरि जो शक्ति नाहीं है तो तिसकै दोऊ ज्ञानका आवरणरूप प्रकृति कहना व्यर्थ है । ताका समाधान, जो, इहां आदेशके वचन कहनेते यह दोप नाहीं है । तहां द्रव्यार्थिकनयके आदेशतें तो अभव्यकै मनःपर्यय केवलज्ञानकी शक्तिका संभव है । बहुरि पर्यायार्थिकनयके आदेशकरि तिस शक्तिका अभाव कहिये । बहार पूछे है, जो ऐसे कहे तो भव्यका अभव्यका भेद कहना न बणैगा जाते दोऊकै तिनकी शक्तिका सद्भाव कह्या । तहां काहिये, जो शक्तिके सद्भावकी अपेक्षा तौ भव्य अभव्यका भेद नाहीं है व्यक्ति होनेके सद्भाव असद्भावकी अपेक्षा
भेद है । जाकै सम्यग्दर्शन आदिकी व्यक्ति होयगी सो भव्य कहिये अर जाकै तिनकी व्यक्ति न होयगी सो अभव्य | कहिये । जैसे सुवर्णपापाणमें अंधपापाण कहिये है, जामैं सुवर्ण नीसरंगा सो तो बुरी सुवर्णपाषाण कहिये । जामें नाही
नसिरैगा सो अंधपापाण कहिये ऐसें जानना ॥