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________________ सिदिश वचनिका यथार्थ जाने है, ऐसें अन्य भी वाद हैं । तहां पौरुषवादी कहै है, जो, आलस्यवान् उत्साहरहित होय सो किछु भी फल न पावै । जैसें बालक मातास्तन खैचिकार दूध पीवै तौ मिलै नातर न मिले, तातें पौरुषहीत कार्यसिद्धि है, विनापौरुष किछु भी नाहीं । बहुरि दैववादी कहै हैं, हम तौ केवल देवकूही उत्तम माने हैं, पौरुष अनर्थक है, ताकू धिक्कार है । प्रत्यक्ष देखो, कर्णराजा एता बडा पुरुष था, सो भी युद्धमें हण्या गया, ऐसे दैववाद है ॥ सर्वार्थ २ बहुरि संयोगवादी कहै है, जो, वस्तुनिका संयोग मिलेही कार्यसिद्धि है । देखौ, एक पह्यातूं रथ चलता नाही, तहां अंधा टी का पंगुला जुदेजुदे तौ वनमें भटकै अर दोऊका संयोग भया तब नगरमें आय गये, ऐसे संयोगवाद है । बहुरि लोकरूढिवादी कहै हैं, जो, लोकवि रूढिही एकवार चलि गई पीछे ताकू देव भी मिलिकरि निवारण कीया चाहें तौ निवारी न जाय । देखो, द्रौपदीने अर्जुनके गलेमें वरमाला डारी थी, तब लोक परस्पर कहने लगे, जो, माला पांडवनिके गलेमें डारी, सो कहनावति अबताई चली जाय है। कोऊ मैंरि सकै नाहीं । ऐसें सर्वथाएकांतपक्षके संक्षेप कहे । बहुत कहाताई कहिये ? जेते वचनके मार्ग हैं तेतेही नयनिके वाद हैं बहुरि जेते नयनिके वाद हैं, तेते अन्यमत हैं, ते सर्व मिथ्या हैं । जाते सर्वथाएकान्तपक्षकार कहे हुए हैं, तातें सर्व परमत हैं । बहुरि तेही नयके वचन सर्वही सम्यक् हैं, सत्य हैं, जैनमतके हैं, जातें कथंचित्प्रकारकार कहे हुए होय है ॥ बहुरि स्वामिसमंतभद्राचार्य आप्तकी परीक्षाके अर्थि देवागमस्तोत्र रच्या है, तामें सत्यार्थ आप्तका तौ स्थापन असत्यार्थका निराकरणके निमित्त दस पक्ष स्थापी हैं । तहां १ अस्ति नास्ति, २ एक अनेक, ३ नित्य अनित्य, ४ भेद अभेद, ५ अपेक्ष अनपेक्ष, ६ दैव पौरुष, ७ अंतरंग बहिरंग, ८ हेतु अहेतु, ९ अज्ञानतें बंध स्तोकज्ञानतें मोक्ष, १० परके दुःख करै अर आपके सुख करै तौ पाप अर परके सुख करै आपके दुःख कर पुण्य । ऐसें दस पक्षविर्षे सप्तभंग लगाये सत्तरि भंग भये । तिनका सर्वथाएकांतविपें दूषण दिखाये हैं। जाने ए कहे सो तो आप्ताभास है अर अनेकांत साधै हैं ते दूपणरहित हैं, ते सर्वज्ञवीतरागके भाषे हैं । तातें अनेकान्तका कहनेवाला सत्यार्थ आप्त है, ऐसे सम्यक् अर मिथ्याका निर्णय किया है । सो देवागमस्तोत्रकी टीका अष्टसहस्रीतें जानना ॥ बहुरि तीनिसै तरेसठि कुवादके आचार्य इस कालमें भये हैं, तिनके केतेकनिके नाम राजवार्तिक तथा गोमटसारतें जानने । तिनमें केई अज्ञानवादी चरचा करै हैं, जो, वेदमें क्रिया आचरण यज्ञादि कह्या है, तिस विधानसूं क्रिया करनेवाले अज्ञानी कैसे ? ताकू कहिये जो, प्राणीनिके वध करनेमें धर्मसाधनका तिनका अभिप्राय है, तातें ते अज्ञानी हैं। इहां वह कहै, जो, अपौरुषेय वेद है तामें कर्ताका दोप नाही आवै, तातें प्रमाण है, तात तिस आगमप्रमाणतें प्राणीनिका वध करना धर्म है । ताकू कहिये, जो, जामें प्राणीनिका वध करना धर्म कह्या, सो आगमही नाही, सर्वप्राणीनिका
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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