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________________ 100वच 10३०२ टीका हा अविरत आदि च्यारि बंधके कारण हैं । बहुरि संयतासंयतकै अविरति है सो विरतिकरि मिश्रित है अर प्रमाद कपाय || । योग ऐसे च्यारि हैं । बहुरि प्रमत्तसंयमीके प्रमाद कपाय योग ए तीनि हैं । अप्रमत्त आदि च्यारि गुणस्थानवालेनिकै योग अर कषाय ए दोयही हैं । बहुरि उपशांतकषाय क्षीणकषाय सयोगकेवली इन तीनिके एक योगही है। बहार सर्वार्थ | अयोगकेवली बंधरहित है ऐसें जानना ॥ __इहां विशेष लिखिये हैं। प्रथम तो बंधक पहले ताके कारण कहे, तामें तो यह जनाया है, जो, विनाकारण बंध नाहीं होय है। तथा कूटस्थ सर्वथानित्यकभी बंध नाहीं होय है । संतानकी अपेक्षा तौ अनादिबंध है । अर पुरातन I | जड है नवीन बंध है ताकी अपेक्षा आदिसहित बंध है । बहुरि मिथ्यात्व नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक दोयप्रकार कह्या, सो b तौ नैसर्गिक तौ एकेन्द्रियआदि सर्वही संसारी जीवनिकै अनादित प्रवतॆ है, याकू अगृहीत भी कहिये । अर जो परकेला 18 उपदेशते प्रवर्ते सो परोपदेशपूर्वक है, ताडूं गृहीत भी कहिये । ताकै क्रियावादादिक च्यारि भेद तीनिसें तरेसठि भेद कहे। ते कैसें हैं सो कहिये है। तहा प्रथमही क्रियावादके एकसौ असी भेद हैं । तहां मूलभेद पांच काल ईश्वर आत्मा नियति स्वभाव ऐसें । बहुरि आपते परतें नित्यपणाकरि अनित्यपणाकार ऐसे च्यारि एक एकपरि लगाय अर जीव अजीव आश्रव संवर निर्जरा बंध मोक्ष पुण्य पाप ऐसें नवपदार्थ तिनपरि न्यारे न्यारे लगाईये सो ऐसे इनकू परस्पर गुणते पांचकू च्यारिकरि गुणे वीस भये, बहुरि नवकरि गुणे एकसौ असी भये, याका उदाहरण जीवपदार्थ आपहीतें कालकार अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ परहीत कालकार अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ कालकार नित्यत्वकार अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ कालकार अनित्यत्वकार अस्तित्व कीजिये । ऐसेंही अजीवादिपदार्थनिपरि लगावना, तब 2 कालकरि नवपदार्थनिपरि छतीस भंग भये । ऐसही ईश्वर आत्मा नियति स्वभाव इन च्यारिनिकरि छतीस छतीस होय, 1 तब सारे एकसौ असी भंग क्रियावादके होय हैं ॥ अब इनका आशय लिखिये हैं। कालवादी तो कहै है, जो, यह काल है सोही सर्वकू उपजावै है, कालही सर्वका | नाश कर है, कालही सर्वकू सुवाणे है, निद्रा दे है, तथा जगावै है, यह काल काहूकरि जीत्या न जाय, सर्वके ऊपरि खडा है, ऐसें तौ कालवादी कहै हैं, । बहुरि ईश्वरवादी कहै है, जो, यह जीव अज्ञानी है, बहुरि अनीश्वर है, असमर्थ है, याके सुख दुःख स्वर्ग नरकका गमन आदि सर्व कार्य ईश्वर करै है, ऐसा ईश्वरवादीका आशय है ॥ बहुरि KI आत्मवादी कहे है, जो, पुरुप एकही है, महात्मा है, देव है, सर्वव्यापी है, सर्व अंग जाके गूढ हैं, चेतनासहित है, ALL 1 निगुण है, परम उत्कृष्ट है । भावार्थ, यह सर्व सृष्टिकी रचना है, सो पुरुषमयी है, दूसरा कोई नाहीं ऐसा आत्मवादका |
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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