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________________ वच निका पान स्वरूप है । बहुरि इन्द्रियकपाय इत्यादि सूत्र आश्रवके कथनविर्षे कहा है । तहां अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान 151 | संज्वलन भेदरूप कपाय कहे हैं । बहुरि तिसही आश्रवके कथनविर्षे प्रथमही सूत्रमै काय वचन मनके योग कहे || । हैं, तेही यहां जानने ॥ | तहां मिथ्यादर्शन तौ दोयप्रकार है, नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक । तहां परोपदेशविना मिथ्यात्वकर्मके उदयके वशतें सि तत्त्वार्थश्रद्धानका अभावरूप परिणाम आत्माकै प्रगट होय सो तौ नैसर्गिक है। बहुरि परका उपदेशके निमित्ततें होय सो च्यारिप्रकार है, क्रियावादी अक्रियावादी आज्ञानिक वैनयिक ऐसें । अथवा पांचप्रकार है, एकांत विपरीत संशय वैनयिक आज्ञानिक । तहां पदार्थविर्षे अनेकधर्म हैं तिनमें ऐसा आभिप्राय करै, जो, वस्तु धीमात्र है, तथा धर्ममात्रही है, तथा कोई एक धर्मकू ग्रहणकरि कहैं । इस एकधर्ममात्रही है, अस्तित्वमात्रही है, नास्तित्वमात्रही है, एकवस्तुमात्रही है, एक पुरुपमात्रही यहू सर्व रचना है, तथा अनेकही है, तथा नित्यही है, तथा अनित्यही है इत्यादिक नयका पक्षपात करै । सो तौ एकांत है । बहुरि निग्रंथ मोक्षमार्ग है ताकू सग्रंथ कहै, केवलीको कवलाहार करता बतावै, स्त्रीकू मोक्ष बतावै है| इत्यादिक विपर्ययरूप विपरीतमिथ्यात्व है । बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानच्यारित्रात्मक मोक्षमार्ग कह्या है, सो यह है कि नाही ऐसा पक्ष करै सो संशयमिथ्यात्व है । बहुरि सर्वदेवनिळू तथा सर्वशास्त्रनिकू तथा सर्वमतनिकू समान मानें, सर्वका विनय | करै, मिथ्यात्व सम्यत्वका भेद न जाणे, सो वैनयिकमिथ्यात्व है। बहुरि हितअहितकी परीक्षाते रहित अंधेकी ज्यौं परिणाम सो आज्ञानिकमिथ्यात्व है। इहां उक्तंच गाथा है, ताका अर्थ क्रियावादीनिके एकसौ असी भेद हैं, अक्रियावादीनिके चौरासी भेद हैं, अज्ञानवादीनिके सतसठि भेद हैं, वेनयिकवादीनिके बत्तीस भेद हैं । ऐसें तीनिस्तै तिरेसठि भेद सर्वथाएकान्तवादीनिके हैं । इहां विशेष ऐसा है, जो, अविरत बारहप्रकार हैं । तहां पांच इंद्रिय अर एक मन इनके विषयनिवि रागादिसहित प्रवृत्ति छह तो ए बहुरि छहकायके जीवनिकी रक्षा न करै छह ए, बहुरि अनंतानुबंधी आदि सोलह कपाय अरु नव | नोकपाय ऐसे पचीस कपाय हैं । नो कहिये ईपत् किंचित् ऐसा नो शब्दका अर्थ लेणा अभाव अर्थ न लेना । बहुरि च्यारि मनोयोग, च्यारि वचनयोग, पांच काययोग ऐसे तेरह योगके भेद हैं । अर आहारक आहारकमिश्र काययोग ए प्रमत्तसंयमीकै होय हैं तातें योग पंदरह भी हैं । बहुरि प्रमाद है सो अनेकविध है। तहां भावकायविनय 1 ईर्यापथ भिक्षा प्रतिष्ठापन शयनासन वाक्य ए आठ तौ शुद्धि बहुरि दशलक्षणधर्म इनविपें उत्साहरहित परिणाम होय तहां प्रमाद कहिये । ऐसें ए पांच बंधके कारण समस्त कहिये सारे एकठे तथा व्यस्त कहिये ते न्यारे न्यारे होय हैं । सोही | कहिये है, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवालेकै तौ पांचूही कारण बंधके हैं । बहुरि सासादन मिश्र असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीनि । 4 भाक्षमाग हैं ताळू सग्रंथ कहै, केवलीको कवलाहार -- - *
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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