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________________ वचनि का पान टीका | ॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषाचद्विशेषः ॥ ३९ ॥ याका अर्थ-विधिका विशेप, द्रन्यका विशेष, दातारका विशेप, पात्रका विशेप इनका विशेपते फलका विशेष है। तहां दान देनेकी विधि ताका तौ आदरतें देना अनादरतें न देना ऐसा विशेष है । तहां मुनिकू देनमें तो नवप्रकार भक्ति सिद्धि || कही है। तहां प्रतिग्रह कहिये पडघावना, ऊंचा आसन देना, पादप्रक्षालन करना, पूजन करना, प्रणाम करना, मन वचन काय शुद्ध करके, भोजन देनेकी शुद्धता करनी ऐसे विधिका विशेप है । तपस्वाध्यायकी वृद्धिका करनेवाला आहार देना यह द्रव्यका विशेप है । बहुरि दातारका सात गुण कहे हैं । तहां परका तौ दानका नाम न करना यामें निरादर आवै है, बहुरि क्रोधकरि न देना क्षमातें देना, बहुरि कपटते न देना, बहुरि अन्य देनेवालेते ईपी कार ताके अवगुण न काढने या अनसूया कहिये, बहुरि देनेका तथा दीयेका पीछे विपाद पिछताव न करना, बहुरि दीयेका बडा हर्प मानना, बहुरि दीयेका गर्व न करना ऐसें दातारके गुणका विशेप है ॥ बहार मोक्षके कारण जे सम्यग्दर्शनादिक गुण जामें पाईये ऐसा पात्रका विशेप है । ऐसें विशेपते तिस दानके फलवि भी विशेष है । जैसे, जैसी धरती होय तामें जैसा बजि तथा वोवनेवालेकी क्रियाका विशेष होय तैसाही धान्य आदि फल निपजें, तैसें जानना ॥ २९८ इहां ऐसा भी भावार्थ जानना, जो, अन्यमती कोई अपना परका मांसादिक देना भी दान कहै हैं, सो मांस आदि । अपना परका उपकारका कारण नाहीं, तथा लेनेवाला योग्य पात्र नाहीं, तातै ताके देनेका फल खोटाही है। वहरि पात्र कुपात्र अपात्रके जघन्य मध्यम उत्कृष्टके भेदतें तथा तैसेंही विधि द्रव्य दातारके भेदते फलका भी अनेकप्रकारपणा है, सो अन्यग्रंथनितें जानना । सो यह स्याद्वादीनिका मतमें सिद्धी है, सर्वथाएकान्तवादीनिके नित्य निक्रियादि पक्ष हैं, तथा क्षणिकपक्ष है, तिनकै परिणामपरिणामीके अभावतें कछु निर्वाधसिद्धि होती नाहीं । बहुरि भावनिकी विशुद्धता संक्ले३ शता फलमें प्रधान है केवल बाह्यके निमित्तकी प्रधानता नाहीं । जाते ऐसे कया है, जो, कोई वस्तु तौ विशुद्धतातें अपात्रनिकू दीया हुवा भले फलफू करै है। बहुरि कोई वस्तु पात्रनिकू भी दीया हुवा संक्लेशपरिणामके वशतें भला फल नाहीं करै है । बहुरि कोई वस्तु पात्र तथा अपात्रनिकू दीया हुवा भी तथा न दीया हुवा भी विशुद्ध परिणामके योगते शुभही फल करै है । ऐसे स्याद्वादमत बड़ा गहन है । सो श्रीगुरुही याका निर्वाह करें हैं । हरैक जनका यामें कहनेका वल नाहीं चले है । जैसे कूपका मींडक समुद्रका पार न पावै, तैसें जानना ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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