SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि ॥३७ ॥ याका अर्थ- जीवनेकी वांछा, मरनेकी वांछा, मित्रनतें अनुराग, सुखका अनुबंध, निदान करना ए पांच अतीचार सल्लेखनाके हैं। तहां आशंसा नाम वांछाका है, सो जीवना मरणा इनकी वांछा करनी, बहुरि पहले मित्रनिसहित धूलीसिदि आदितै क्रीडा करी थी ताका यादि करना बारबार स्मरण करना, सो मित्रानुराग है । बहुरि पूर्व सुख भोगे थे तिनसूं टीका प्रीतिविशेपके निमित्ततें बारबार यादि करना तथा वर्तमानमें सुखही चाहना, सो सुखानुबंध है । बहुरि भोगकी वांछा कार नियम बांधना, जो 'ऐसा भोग मिलै' सो निदान है। ऐसैं ए पांच सल्लेखनाके अतीचार हैं । इहां ऐसा भावार्थ, Tel जो, ए पांच कहे सो कोई जानेगा पांच पांचही हैं, सो ऐसें न समझना । जहां पांच कहै तहां बहुवचन है। सो इनमें इनके समान अनेक गर्भित हैं । तहां यथासंभव जानने । इनके जाननेकू तथा व्रतनिकू श्रीगुरुनिका सरणा निर्दोष कर है । इहां व्रतशीलनिके अतीचार कहने में ऐसा भी आशय सूचै है, जो, तीर्थकरनामकर्मकी प्रकृतिके आश्रवके कारण कहे, तिनमें शीलव्रतेष्वनतीचार ऐसी भावना कही है । तातै तिनके अतीचार जनाये हैं। अ.. जो, पालाधना, जो ऐसा बाद करना तथा स्मरण करना, सोका वांछा करनी, दान करना ए पनि बांधना, जो ऐसा भोग मिले, समा वर्तमान में सुखही चाहना, सा है । बहुरि पूर्व सुख भोगेश पली- पत्र निका पान २९७ आगें पूछे है, जो, तुमने तीर्थकरनामप्रकृतीके कारण आश्रवके निर्देशविर्षे कह्या जो “ शक्तितस्त्यागतपसी" | ऐसे तथा शीलविधानविर्षे अतिथिसंविभाग कह्या है, तामें त्याग दानका लक्षण है, मनमें न जाण्या, सो अब कहौ, है। ऐसैं पू॰ सूत्र कहें हैं ॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८॥ याका अर्थ- अपना परका उपकारके आर्थ अपना वित्तका त्याग करना सो दान है । तहां अपना परका जो | उपकार सो अनुग्रह कहिये। तहां अपना उपकार तौ पुण्यका संचय होना है बहुरि परका उपकार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धि होना है । बहुरि स्व ऐसा धनका नाम है । सो ऐसें अनुग्रहके आर्थि स्वका अतिसर्ग कहिये त्याग करना, सो दान है ॥ ___ आगें पूछे है, जो, ए दान है ताका फल . एकही .अविशिष्ट कहिये, विशेपरहित है कि कछू विशेषफलस्वरूप || है । ऐसें पू॰ सूत्र कहै हैं
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy