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________________ सर्वार्थ वचनि का पान टीका अ.७ १५ | विरतिके हैं। तहां रागके तीवउदयतें जामें हास्य मिली होय ऐसा नीच हीन मनुष्यके कहनेका गाली आदि भंडवचन पैलेकं कहना, सो कंदर्प है । बहुरि हास्यके गालीसहित वचन भी कहै अर कायके चेष्टातें निंदायोग्य क्रिया भी करै जाळू लौकिकमें खवाखसी आदि कहै हैं, सो कौत्कुच्य है । बहुरि धीठपणा लिये बहुत प्रलापरूप बकवाद करना, सो मौखर्य है । बहुरि विनाविचारे विनाप्रयोजन अधिकी क्रिया करना, फिरना, डोलना, कूदना इत्यादि सो असमीक्ष्याधिकरण है। इहां मन वचन काय तीनीकी क्रिया विनाप्रयोजन न करै सो जाननी । बहुरि खानेपीनेकी सामग्री तथा वस्त्र आभूषण आदि निःप्रयोजन बहुत भेले करने, सो उपभोगपरिभोगानर्थक्य है । ऐसें ए पांच अतीचार अनर्थदंडविरतिके हैं। आगें सामायिकके अतीचार कहै हैं ॥ योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ याका अर्थ-- योग जे मन वचन कायके कर्म, तिनका बुरा चितवन प्रवर्तन करना, तीनि तौ ए अर सामायिकके विर्षे अनादर, क्रियापाठ आदिका भूलना ए पांच अतीचार सामायिकके हैं । तहां योगका स्वरूप तो पहले कहा सोही । ताका दुष्प्रणिधान कहिये खोटी प्रवृत्ति करना, सो ए तीनिप्रकार, वचनका दुष्प्रणिधान कायका दुष्प्रणिधान मनका दुष्प्रणिधान । इहां भावार्थ ऐसा, जो, सामायिक करै तब सामायिकमैं तौ मनवचनकायकी प्रवृत्ति न रहै अर अन्यकार्यमें प्रवृत्ति करै, सो अतिचार है । बहुरि अनादर कहिये सामायिकविर्षे उत्साह नाहीं, जैसेंतैसें काल पूरा करै, सो है । बहुरि स्मृत्यनुपस्थान कहिये पाठक्रिया यादि न रहै भूलि जाय, सो है । ऐसें सामायिकके अतीचार हैं ॥ आगें प्रोषधोपवासके अतीचार कहै हैं - ॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४॥ याका अर्थ-- अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित कहिये विना नीका देख्या तथा विना नीका झाड्या पृथ्वीपार क्षेपना उठावना सांथरा करना तीनि तौ ए अरु प्रोषधविर्षे उत्साह नाहीं निरादरसूं करना तथा क्रियामें भूली जाणा ए पांच प्रोषधोपवासके अतिचार हैं जहां प्रोषधउपवासकी प्रतिज्ञा लेकरी जहां बैठना तिस भूमिवि जीव है कि नाहीं हैं ऐसे नेत्रनिकरि देखना, सो प्रत्यवेक्षणा, कहिये ।.बहुरि कोमल पीछी आदि उपकरणकार झाडना सो प्रमार्जन है। तिन । दोऊनिका अभाव उत्सर्ग कहिये, भूमिविर्षे मलमूत्र क्षेपणा । आदान कहिये अरहंत आचार्यकी पूजाका उपकरण तथा
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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