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________________ सर्वार्थ सिद्धि टीका अ. ७ बहुरि विशेष, जो, प्राणीकै मरण अनिष्ट है, तहां जैसें कोई व्यापारी अनेकप्रकार व्यापारकी वस्तु संचय करी होय घरमें धरी होय ताकै घरका विनाश होना इष्ट नाहीं ताकुं यथाशक्ति दूरि करै, बहुरि कारण दूरि न होय सकै तौ जैसें अपनी व्यापारकी वस्तु घरमें धरी थी तिनका विनाश न होय तैसैं यत्न करै, ऐसैंही गृहस्थ श्रावक भी व्रतशीलरूप व्यापारकी वस्तुका संचयविषै प्रवर्ते है, तिसका तहां कोई कारण ताके विनाशका कारण आय प्राप्त भया होय आश्रय यह जीवित है ताका नाश तौ न चाहे है, बहुरि तिसके नाशका कारण आय प्राप्त होय तब ता कारणकूं जैसे अपना गुण विरोध्या न जाय तैसें दूरि करै, बहुरि जो नाशका कारण दूरि न होय सकै नाइलाज होय तव जैसैं अपना गुणका विनाश न होय तैसें यत्न करै, यामें कैसे आत्मघात भया कहिये १ तहां पूछै है, कि, सल्लेखना मरणके अंतविर्षे कही, सो मरणका ज्ञान कैसे होय ! तथा विना जाणे कैसें करिये तहां कहीये है, जरा रोग इन्द्रियनिकी हानि दीखै जो अवश्य जाणै अब यह शरीर रहेगा नाहीं, तब प्राक आहारपाणीकरि तथा उपवासादि तपकरि अनुक्रमतें शरीरका बल क्षीण होता जाय तहां मरणपर्यंत द्वादशभावनाका चितवन काल गमावै, शास्त्रोक्त विधानकरि समाधि मरण करै ॥ आगें जो " निःशल्यो व्रती " ऐसा पूर्वै कह्या था, तहां तीसरा शल्य मिथ्यादर्शन कया था, तातैं यह जान्या, जो व्रती होय है सो सम्यग्दृष्टि होय है, मिथ्यादृष्टि व्रतनिकी क्रियारूप प्रवर्ते तौ व्रती नाहीं । तहां पूछै, सो सम्यग्दर्शन अतीचारसहित सापवाद होय है कि अतीचाररहित निरपवाद होय है ! ऐसें पूछें सूत्र कहें हैं, जो, कदाचित् मोहनीयकर्मका विशेष जो सम्यक्त्वप्रकृति तातै ए अपवाद कहिये अतीचार होय हैं, याका सूत्र - ॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टरेतीचाराः ॥ २३॥ याका अर्थ - शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव ए पांच अतीचार सम्यग्दृष्टीके हैं । तहां निःशंकितपणाकूं आदि देकर आठ सम्यक्त्वके अंग पूर्वे दर्शनविशुद्धिके कथनविपैं कहे थे, तिनके प्रतिपक्षी दोप जानने । इहां पूछे है, प्रशंसा अर संस्तव में कहा विशेष है ! ताका उत्तर, जो, मनकरि मिथ्यादृष्टीके ज्ञानचारित्रगुणका प्रगट करनेका विचार ताक भला जानना, सो तौ प्रशंसा है । बहुरि मिथ्यादृष्टीविर्षे छते तथा अणछते गुणका प्रगट करनेका वचन कहना सो संस्तव है । इह इनि दोऊनिमें भेद है । बहुरि पूछे है, सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे थे नाके तेतेही प्रतिपक्षी अतीचार चाहिये, पांचही कैसे कहे ? तहां कहै हैं, जो यह दोष नाहीं । आगे व्रतशीलनिविपैं पांचपांचही संख्याकार अतीचार कहेंगे, तातैं प्रशंसासंस्तवविर्षे अन्य अतीचारनिकूं गर्भितकरि पाचही कहे व च निका पान २९०
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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