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________________ सर्वार्थ वचनि का पान २८५ वहार उपात्त कहिये परकी व्याही अर अनुपात कहिये परकी व्याही नाहीं ऐसी जो परस्त्री तिसके संगमतें नाहीं है रति कहिये राग जाकै ऐसा गृहस्थ, सो तौ चौथा अणुव्रतधारी है । बहुरि धन धान्य क्षेत्र आदि परिग्रहका अपनी इच्छाके वशते परिमाण करै, जेती इच्छा होय तेता राखै ऐसा जो गृहस्थ सो पांचमां अणुव्रतधारी है। इहां कोई पूछै, जो, गृहस्थव्रतीकू उसके घातका त्यागी कह्या सो याकै व्यापारआदि गृहस्थके आरंभ अनेक हैं, तिनमें उसकी हिंसा अवश्य होय है । तामें त्याग कैसे पलै ? बहुरि याकै शास्त्रमें ग्यारह प्रतिमारूप भेद कहे हैं, तिनमें समझै नाहीं, सो कैसै है ? ताका समाधान, जो श्रावकके ग्यारह प्रतिमारूप भेद कहे हैं, तिनमें प्रथमप्रतिमाविही स्थूलत्यागरूप पांच अणुव्रतका ग्रहण है । याका लक्षण ऐसा कह्या है, जो, आठ तौ मूलगुण पालै, सात व्यसन छोडै, सम्यग्दर्शनके अतीचार मल दोप टालै ऐसें कहै ते पांच अणुव्रत स्थूलपणे आवै है । जातें कोई शास्त्रमें तौ आठ मूलगुण कहे हैं। तामें पांच अणुव्रत कहे मद्य मांस शहतका त्याग कह्या ऐसे आठ कहे । कोई शास्त्र में पांच उदंबर फलका त्याग, तीनि मकारका त्याग ऐसे आठ कहे । कोई शास्त्रमें अन्यप्रकार भी कया है, यह तो विवक्षाका भेद है। तहां ऐसा समझना, जो, स्थूलपणे पांच पापहीका त्याग है । पंच उदुंबर फलमैं तौ त्रसभक्षणका त्याग भया, शिकारके त्यागमें त्रस मारनेका त्याग भया, चोरी तथा परस्त्री व्यसनत्यागमें दोऊ व्रत भये, द्यूतकर्मआदि अतितृष्णाके त्यागते असत्यका त्याग तथा परिग्रहकी अतिचाह मिटी, मांस मद्य शहतके त्यागते त्रसकं मारिकरि भक्षण करनेका त्याग भया । ऐसें पहली प्रतिमामें पंच अणुव्रतकी प्रवृत्ति संभव है । अर इनके अतीचार दूरि कार सकै नाहीं । तातें व्रतप्रतिमा नाम न पावै । सम्यग्दर्शनके मल दोष अतीचार दूर होय सके हैं, दर्शनप्रतिमा नाम कहावै है । मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि अतीचाररहित प्रतिज्ञा पलै, तब प्रतिमा नाम पावै है, प्रतिमा नाम मूर्तिका भी है, सो व्रतकी सांगोपांग मूर्ति बणे तब प्रतिमा कहिये, सो इस दर्शनप्रतिमाका धारक पंचपरमेष्ठीका भक्त है, अन्यकी उपासना नाहीं, संसारदेहभोगते विरक्त है । जो प्रतिज्ञा याकै है, सो ऐसी है, जो, संसारके कार्य बिगडै तौ बिगडौ, देह बिगडै तौ बिगडौ, भोग बिगडै तौ बिगडौ, प्रतिज्ञा तो भंग न करनी । ऐसें दृढपरिणामहीतें प्रतिज्ञा नाम पावै है। बहुरि त्रसके घातकी भी ऐसी तौ प्रतिज्ञा होय है, जो, त्रसप्राणीकू मनवचनकायकरि मारूं नाही, परकू उपदेशकार मरवाऊं नाहीं, अन्य मारै तौ ताकू भला जाणूं नाही, देवताके आर्थि गुरुके आर्थि मंत्रसाधनके आर्थि रोगके इलाजके अर्थि सप्राणीकू घातूं नाहीं अर व्यापार आदिकार्यनिविर्षे यत्न तो करै, परंतु तहां गृहस्थके आरंभके अनेक कार्य हैं, कहांताई वचावै ? तो याके अभिप्रायमैं मारनेहीके परिणाम नाहीं, तातै पाप अल्प है। बहुरि व्रतप्रतिमामें व्रतनिके
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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