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सर्वार्थ
टीका
। सो वनमें वसता होय तौ अगारीही कहिये । अर घरमें वसै ते अगारीही हैं । बहुरि भावअगारका जाकै अभाव है l | सो अनगार कहिये है ॥
बहुरि तर्क, जो, अगारी जो गृहस्थ ताकै व्रतीपणाकी प्राप्ति नाहीं बणै है । जातें याके परिपूर्ण व्रत नाहीं। व्रती
ऐसा नाम तो पूर्ण व्रत होय तब बनें । ताका समाधान, जो, यह दोप नाहीं है । नैगम आदि नयकी अपेक्षाकरि सिन्द्वि
| अगारी गृहस्थकै भी व्रतीपणां बणे है । जैसे कोऊ एक साल ऊबरामें वसता होय ताकू नगरमें वसनेवाला भी कहिये। | तैसें ताकै सकलव्रत नाही है, एकदेशव्रत है तौ ताकू व्रती कहिये नैगम संग्रह व्यवहार ए तीनूं नय हैं, तिनकी | पान अपेक्षा जाननी । तहां नैगम तो आगामी सकलव्रती होयगा । ताकी अपेक्षा संकल्पमात्रविपय करै है । बहुरि संग्रह।
२८४ सामान्यत्तीका ग्रहण करै है । तहां एकदेश भी आय गया । बहुरि व्यवहार व्रतीका भेद करै है । तातै एकदेशव्रतीका भेद हैही, एकदेशविर्षे सर्वदेशका उपचारतें भी वर्षे है, ऐसा जानना ॥
आगें पूछे है कि, हिंसादिक पांच पाप हैं, तिनमें कोई पुरुप एकपापते निवृत्त हूवा होय सो गृहस्थ व्रती है कि नाही ? आचार्य कहै हैं नाहीं है । फेरि पूछे है, जो, कैसै हैं ? तहां कहें हैं, पांचूही पापकी विरति वैकल्येन कहिये एकदेशपणे करै, सो इहां विवक्षित है । ताका सूत्र
॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ २०॥ याका अर्थ- पांच पापका त्याग अणुव्रत कहिये एकदेश त्याग जाकै होय सो अगारी कहिये गृहस्थव्रती है। २ तहां अणुव्रतशब्द है सो अल्पवचन है, जाकै अणुव्रत होय सो ऐसा अगारी कहिये है । इहां पूछे है, या अगारी
गृहस्थकै व्रतनिका अणुपणा कैसे है ? ताकू कहै है, याकै सर्वसावध कहिये सर्वही पाप तिनकी निवृत्ति कहिये अभाव : ताका असंभव है-होय सकै नाहीं । फेरि पूछै, जो, यऊ कोनसे पापत निवृत्त है ? तहां कहिये है, सप्राणीनिका व्यपरोपण कहिये मारणा ताते निवृत्त है । तातें तौ याकै आद्यका अहिंसा नामा अणुव्रत है । बहुरि जिस असत्य वचनतें घरका विनाश होय, तथा ग्रामका विनाश होय, ऐसा आप जाणे तिस असत्यवचनते निवृत्त होय स्नेहमोहके वशतें ऐसा वचन न बोलै ऐसे गृहस्थकै दूसरा अणुव्रत होय है । बहुरि अन्यकू पीडाका कारण ऐसे अदत्तादानादिकका न लेना, ताका राजादिकके भयतें अवश्य त्याग होयही, तिसवि लेनेकी इच्छा भी न होय, ऐसे परिणाम न होय, जो, भय न होय तौ लेवो विचारै, ऐसा होय तो तावि आदरही न होय, सो तीसरे अणुव्रतधारी श्रावक है।