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वचनि का
इहां तर्क करै है, शल्यका अभावतें तो निःशल्य कहिये। बहार व्रतके धारणते व्रती कहिये । इहां व्रतीका विशेषण निःशल्य किया सो व्रतकै अर निःशल्यपणाकै विरोध है, ताने विशेषण बणें नाहीं । निःशल्यकू व्रती कहना बणें नाहीं। जैसे दंडके संबंधते तो दंडी कहिये । छत्रके संबंधते छत्री कहिये । दंडीके संबंधते छत्री कहना तौ वणें नाहीं । ताका
समाधान, इहां दोऊ विशेपणतें व्रती कहना इष्ट किया है। केवल हिंसादिकके छोडनेही मात्र व्रतके संबंधते शल्यसहितकं सर्वार्थ
व्रती कह्या नाहीं, जाकै शल्यका अभाव होय तब व्रतके संबंधतें गृहादिकमें वसने न वसनेकी अपेक्षा अगार अनगारके सिद्धि
भेदकार व्रती कहनेकी विवक्षा है। जैसें जाकै बहुत दूध घृत होय ताकू गऊवाला कहिये बहुरि जाके दूध घृत नाहीं होय अरु गऊ विद्यमान होय तो गऊवाला कहना निष्फल है । तैसें जो शल्यसहित होय ताकै व्रत होते भी व्रती २ कहना सत्यार्थ नाहीं । जो निःशल्य है सोही व्रती है । तथा इहां ऐसा भी उदाहरण हैं, जो, प्रधान होय ताका विशेपण अप्रधान भी होय है । जैसे कोई काटनेवाला पुरुष तौ काटनेकी क्रियावि4 प्रधान हैही, परंतु ताके विशेषण कीजिये जो तीक्ष्ण फरसीकरि काटे है तहां तीक्ष्णगुण विशेषणसहित फरसी अप्रधान है । सो काटनेवाला पुरुषका विशेषण होय है; तैसें निःशल्यपणागुणकरि विशेषणस्वरूप जो व्रत ते तिस व्रतसाहित पुरुप प्रधान है, ताका विशेपण होय है ऐसें जानना ॥
टीका
पान
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आगें ऐसे व्रतीके भेद जानने• सूत्र कहें हैं
॥ अगार्यनगारश्च ॥ १९ ॥ याका अर्थ- अगारी कहिये गृहस्थ दूजा अनगार कहिये मुनि ऐसे व्रतीके दोय भेद हैं । तहां वसनेके अर्थि पुरुष जाकौं अंगीकार करै सो अगार कहिये ताळू वेश्म मंदिर घर भी कहिये, सो जाकै होय सो अगारी कहिये । बहुरि जाकै अगार न होय सो अनगार कहिये । ऐसें दोय प्रकारके व्रती हैं । एक अगारी दूसरा अनगार । इहां तर्क, जो, ऐसे तो विपर्ययकी भी प्राप्ति आवै है । शून्यागार देवमंदिर आदिकवि आवास करते जे मुनि तिनकै अगारीपणा आया । बहुरि जो विषयतृष्णातें निवृत्त नाही भया है, ऐसा गृहस्थ सो कोई कारणते वनमें ज्याय वस्या ताकै अनगारपणा आया । तहां आचार्य कहै हैं, यह दोष इहां नाहीं आवै है। इहां भाव अगारकी विवक्षा है । चारित्रमोहके उदयतें अगार जो घर ताके संबंधप्रति जो अनिवृत्ति परिणाम है सो भावअगार है । सो ऐसा जाकै भावअगार होय